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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वयंसेवकोंको अधीर नहीं होना चाहिए। अधीरता हिंसाकी एक स्थिति है। सत्याग्रहीका विजयसे कोई वास्ता नहीं होता। उसका उसे निश्चय होता है, परन्तु वह यह भी जानता है कि विजय देनेवाला तो एक ईश्वर ही है। उसका अपना काम तो सिर्फ कष्ट सहन करना है ।

मुझे जो कागज-पत्र भेजे गये हैं, उनमें आमदनी और खर्चका हिसाब दिया गया है। आमदनीका हिसाब ब्यौरेवार है और कुल जमा रु० २२८-२-६ बताये गये हैं । कुल खर्च भी उतना ही दिखाया गया है। वह इस प्रकार है -- भोजन खर्च रु० ७१-७-९; गाड़ी-भाड़ा : रु० ५३-२-६; सभाके विज्ञापनोंकी छपाई आदि : रु० ३९- ४-०; व्यवस्था और डाकखर्च : रु० २१-८-९; सभामें बत्ती आदिका खर्च : रु० २२-८-०। मैं इस व्ययसे सन्तुष्ट नहीं हूँ। मैंने और ब्यौरेवार हिसाब मांगा है। मैं सत्याग्रहियोंसे कहूँगा कि वे भोजन, गाड़ी और बत्ती इत्यादिपर ज्यादा खर्च न करें । इसमें यदि मेरी कोई भूल होती हो तो वे सुधारें। मैं यह जानता हूँ, मेरी अपनी सभाओंमें भी इन चीजोंपर अपव्यय होता है। कांग्रेसके कार्यपर भी जरूरत से ज्यादा खर्चका आरोप लगाया जा सकता है। परन्तु दरिद्रनारायणके प्रतिनिधिके नामसे अपनी पहचान देनेवाले मेरे-जैसोंके सम्बन्धमें भी क्या होता है, इसका दृष्टान्त देकर मैं अपना अभिप्राय बताना चाहता हूँ । जहाँ ६ सन्तरे काफी होंगे वहाँ ६० लाये जाते हैं, जहाँ एक मोटरसे काम चलता है वहाँ ६ तैयार रखी जाती हैं, और जहाँ एक हरिकेन लालटेनसे काम चल सकता है वहाँ कई-एक बड़ी गैस बत्तियाँ रखी जाती हैं। सत्याग्रहियोंको यह समझना चाहिए कि उनको जो धन मिलता है, उसमें से एक-एक पैसेको एक कंजूस आदमीकी तरह खर्च करना उनका फर्ज है। मेरा सुझाव है कि वे किसी प्रतिष्ठित स्थानीय व्यक्तिको अपने तमाम रुपये सौंप दें और किसी परोपकारी लेखा परीक्षकसे अपने हिसाबकी निःशुल्क जाँच कराया करें । सार्वजनिक धन खर्च करनेमें बड़ी प्रामाणिकता और सावधानीकी आवश्यकता है। स्वस्थ सार्वजनिक जीवनके विकासकी यह अपरिहार्य शर्त है ।

तीसरे कागजमें सत्याग्रहियों द्वारा लोगोंसे की गई अपील है। सत्याग्रहीकी अपीलमें भाषा विनययुक्त होनी चाहिए। इस अपीलमें यों कोई अनुचित बात नहीं लिखी गई है, परन्तु उसे और अच्छा बनाया जा सकता था । "नीलको ही नहीं, उसकी अधम जातिके सभी लोगोंको यहाँसे हटना चाहिए " यह वाक्य उस अपीलकी शोभा बिगाड़ देता है। जनरल नील तो इस संसारमें नहीं है। हमें तो उसकी प्रतिमासे निपटना है; और कहें तो प्रतिमासे भी नहीं निपटना है। हमें तो जिस सिद्धान्तकी प्रतीक यह प्रतिमा है, उसका नाश करना है। हम किसी भी मनुष्यको नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते। और हम कष्ट-सहन द्वारा लोकमतको, जिसमें अंग्रेजोंका लोकमत भी शामिल है, अपने पक्षमें करके अपने लक्ष्यको प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे कार्य में क्रोध और घृणाकी भाषाके लिए स्थान नहीं हो सकता ।

इतनी बात तो स्वयंसेवकोंसे रही ।

जनताका भी इन स्वयंसेवकोंके प्रति एक कर्त्तव्य है। लोग मले है। लोग मले ही जेल न जायें, परन्तु वे इस आन्दोलनकी अनेक प्रकारसे निगरानी कर सकते हैं, उसपर अंकुश