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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

क्या मैं जानता हूँ कि वे आवाजें कैसी हैं? उन्होंने मुझे बताया कि वह एक नायडीकी आवाज है, और इसके साथ ही उन्होंने बताया कि यह इस बातका सूचक है कि एक नायडी कुछ दूरीपर भीख मांग रहा है। मैंने पूछा कि वह कितनी दूर होगा । यह सुनकर कि वह कुछ ही दूरीपर है, मैं जल्दीसे यह देखनेके लिए निकला कि यह कौन आदमी है जो ऐसी आवाजें कर रहा है। खैर, आप सभी जानते हैं कि मैंने उसे कहाँ पाया होगा। वह सड़कपर नहीं चल रहा था, बल्कि सड़कके किनारे लगी बाड़से कुछ दूर हटकर चल रहा था। मैंने उससे निकट आनेको कहा। वह निकट तो आया, किन्तु बाड़के किनारे सड़कपर नहीं आया। उसने मुझसे कहा कि वह सड़कके किनारे आनेकी हिम्मत नहीं कर सकता। उसने यह भी कहा कि वह पाल- घाटकी सड़कोंपरसे कभी नहीं चलता। इस दुखद मामलेकी बाकी कहानी मुझे आपको सुनानेकी जरूरत नहीं है ।

वह आदमी निश्चय ही क्षुधाग्रस्त नहीं लगता था। लेकिन मेरे लिए हिन्दुओंको बधाई देनेका यह कोई कारण नहीं था। मेरे लिए तो उस आदमी के सामने व्यक्तिके सामने जिसे हम मानव या अपना भाई मानने से इनकार करते हैं -- मुट्ठी- भर चावल फेंक देना तिरस्कार और पतित अन्तःकरणका सूचक था। प्रति सप्ताह शनिवार और बुधवारको इन व्यक्तियोंके सामने जिस प्रकार हम चावल फेंकते हैं, उस तरह चावल फेंककर, मेरी नम्र रायमें, हम न केवल मानवको पतित बनाते हैं, बल्कि भीख माँगनेको बढ़ावा देते हैं। मैं नहीं समझता कि इस व्यक्तिकी तरह दो सशक्त भुजाओं और पैरोंवाले लोगोंको भोजन या पैसा देने में कोई दानशीलता है। जब मैंने इस आदमीसे पूछा कि क्या वह भीख माँगनेका पेशा छोड़कर नियमित मजदूरीका कोई काम करेगा तो उसने मुझसे कहा कि अपने भाई-बन्धुओंसे पूछे बिना वह वैसा नहीं कर सकता। अब यह बात मैं आपपर, आपमें जो बुद्धिमान हैं, उन्हींपर छोड़ता हूँ कि आप देखें कि इस अन्यायके क्या भयंकर परिणाम हैं। अपने इस गरीब देशमें इस प्रकारकी दानशीलताके कुछ परिणाम हम अभी भी भोग रहे हैं। इस लज्जाजनक दृश्यको देखनेके दो घंटे बाद मुझे उन मित्रों का स्वागत करनेका सुख प्राप्त हुआ, जिनकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ।

उनमें से कुछ लोगोंकी विद्वत्ता, आपमें से जो सबसे ज्यादा विद्वान होंगे, उन्हींकी- विद्वत्ताकी कोटिकी थी। इस सभायें उपस्थित श्रेष्ठतम व्यक्तियोंमें और उन लोगोंमें मुझे कोई अन्तर नहीं दिखाई पड़ा, और फिर भी उनके अभिनन्दनपत्रोंसे अन्यायका ऐसा ब्यौरा मेरे सामने प्रकट हुआ जो हममें से प्रत्येकको लज्जित कर देनेके लिए काफी है। सिर्फ इस कारणसे कि उन्हें अस्पृश्य माना जाता है, वे कुछ सड़कोंपर सार्व- जनिक सड़कोंपर - नहीं चल सकते, यद्यपि वे भी उसी तरह कर देते हैं जिस तरह आपमें से कोई भी देता है । मन्दिर प्रवेशकी बात तो सोची ही नहीं जा सकती। उनमें से कुछ लोग तो किसी भी सड़कपर नहीं चल सकते, और जो सवर्ण हिन्दुओंने किया है, उसीका अनुकरण करके खुद उनके बीच भी कई वर्ग बन गये हैं, अस्पृश्योंकी भी कई श्रेणियाँ बन गई हैं। उन्होंने मुझसे सहायताकी अपील की। काश कि मैं