१०९. पत्र : मीराबहनको
२१ अक्टूबर, १९२७
मुझे तुम्हारे पत्र नियमित रूपसे मिलते हैं। तुम जितने चाहो उतने पत्र लिखने से मैं तुम्हें मना नहीं करता। मैंने सिर्फ यह कहा था कि तुम मुझे प्रति सप्ताह एक पत्र लिखोगी तो मैं सन्तुष्ट हो जाऊँगा। एक भी पत्र न मिलने से मुझे चिन्ता होगी । अगर तुम्हारा मन हर रोज एक पत्र भेजनेका हो तो मैं उसका स्वागत करूंगा ।
मैं सोचता हूँ कि धूपमें घूमने-फिरनेमें तुम्हें कुछ तकलीफ तो होती होगी। क्या धूपसे बचावके लिए तुम सरपर कुछ पहनती हो ? अगर जरूरत हो तो तुम हैट इस्तेमाल करनेमें झिझकना मत ।
हालाँकि मैं माँ का स्थान लेता हूँ, या कहें कि चूँकि मैं यह विशिष्ट स्थान लेता हूँ, इसलिए वास्तविक माँ का तुम्हारे लिए पहलेसे ज्यादा महत्त्व होना चाहिए । तुम्हारे साथ मेरे सम्बन्ध शुद्ध हों इसके लिए यह जरूरी है कि यह सम्बन्ध स्वाभाविक स्नेहके तुम्हारे सभी सम्बन्धोंको मजबूत बनाये । इतना जरूर है कि ये सम्बन्ध शुद्धतर हो जाने चाहिए और उनमें स्वार्थका लेशमात्र समाप्त हो जाना चाहिए ।
बापू
- अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२८८) से ।
- सौजन्य : मीराबहन
११०. पत्र : सुरेन्द्रको
[२२ अक्टूबर, १९२७ के पश्चात् ]
तुम्हारी चिट्ठी मिली। पूज्य गंगाबहन[२] चाहती हैं कि तुम स्त्रियोंके वर्गको रोज थोड़ा समय दो। मैं उनसे सहमत हूँ। अगर तुम दे सको तो थोड़ा समय इसके लिए दो ।