१३८. पत्र : परशुराम मेहरोत्राको
मंगलवार, १ नवम्बर, १९२७
तुमारा पत्र अभी मीला है। राजकिशोरीके[१] आत्माको तो शांति हि है। तुमारे धीरज रखना । ईश्वर तुमको शांति और भक्ति दे।
बापूके आशीर्वाद
- सी० डब्ल्यू० २९७२ से ।
- सौजन्य: परशुराम मेहरोत्रा
१३९. भाषण : जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली में
२ नवम्बर, १९२७
जिन लड़कोंका अभी आपसे परिचय करवाया गया, वे मेरे मित्र और साथी कार्यकर्ता, स्वर्गीय अहमद मुहम्मद काछलियाके पौत्र हैं। वे मेरे लिए सगे भाईके समान थे । इन लड़कोंको देखकर मुझे सहज ही उनकी याद हो आई है और मैं समझता हूँ कि उनके बारेमें मुझे आपको कुछ बताना चाहिए। सत्याग्रहके दिनों में दक्षिण आफ्रिकामें जो हिन्दू और मुसलमान रहते थे, उनमें से एक भी भारतीय ऐसा नहीं था जो बहादुरी और ईमानदारीके मामलेमें काछलियाकी बराबरी कर सके । उन्होंने अपने देशके सम्मान और प्रतिष्ठाकी खातिर अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। उन्होंने न अपने व्यापारकी चिन्ता की और न अपनी सम्पदाकी और न मित्रोंकी ही, और तन-मनसे वे संघर्ष में कूद पड़े। उन दिनोंमें भी हिन्दू-मुस्लिम तकरारें जब-तब होती थीं, लेकिन काछलियाने दोनोंको तुलापर समान रूपसे रखा। किसीने उनपर अपने सम्प्रदायके साथ पक्षपात करनेका आरोप कभी नहीं लगाया ।
और उन्होंने देशभक्ति और सहिष्णुताका यह महान गुण किसी स्कूलमें या इंग्लैंडमें नहीं, बल्कि अपने ही घरमें सीखा था, क्योंकि वे तो गुजराती भी कठिनाईसे लिख पाते थे । वकीलोंके तर्कोंका वे जिस प्रकार उत्तर देते थे उसे देखकर वे आश्चर्य करते थे, और उनकी सामान्य विवेक बुद्धि अकसर वकीलोंके लिए बड़ी कामकी होती थी। उन्होंने ही सत्याग्रहियोंका नेतृत्व किया, और काम करते हुए ही शरीर-त्याग
- ↑ १. परशुराम मेहरोत्राकी पत्नी जिनकी हालमें ही मृत्यु हुई थी।