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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तुम जितना भी स्नेह मणसालीको दे सकती हो उसे दो और उस स्नेहको अपना असर दिखाने दो। जहाँ तर्कसे काम नहीं बनता, वहाँ अकसर स्नेहसे बन जाता है ।

सप्रेम,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२९३) से ।
सौजन्य : मीराबहन

१७२. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

कोलम्बो
मौनवार, १४ नवम्बर, १९२७

बहनो,

हम शनिवारको कोलम्बो पहुँचे। मुझे आशा थी कि तुममें से किसी न किसीका पत्र मिलेगा, मगर आज सोमवारतक नहीं मिला।

यह देश बहुत रमणीय है। हिन्दुस्तानके बाहर होनेपर भी हिन्दुस्तान जैसा ही लगता है। यहाँ दक्षिणकी तरफके लोग ही ज्यादा बसते हैं। किन्तु वे यहाँके निवासियोंसे बहुत अलग नहीं मालूम होते । यहाँकी स्त्रियोंकी पोशाक सादी है। स्त्रियों पुरुषोंकी पोशाक लगभग एक-सी कही जा सकती है। दोनों धोती पहनते हैं । वैसे ही जैसे सुरेन्द्र पहनता है। इतना ही है कि यहाँकी धोतियाँ रंगीन और बेलबूटेदार होती हैं। ऊपर दोनों बंडी पहनते हैं। हाँ, बंडीकी बनावटमें थोड़ा फर्क जरूर है। स्त्रियाँ बंडीके बिना हरगिज नहीं रहतीं, जब कि ज्यादातर पुरुष केवल धोतीसे ही सन्तोष कर लेते हैं। कुछ ऐसी ही पोशाक मलाबारमें भी होती है। इतना ही है कि वहाँकी धोतियाँ रंगीन नहीं होती। ये कपड़े तो बहुत ही सस्ते पड़ते हैं। दोनों प्रदेशों में लोगोंको खादीसे प्रेम हो जाये तो पहननेमें अड़चन आ ही नहीं सकती।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ३६७६) की फोटो-नकलसे ।