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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपने ही रचे हुए पशुओंके खूनकी आवश्यकता महसूस करता है। इसलिए उन्होंने परमात्माको उसके सच्चे आसनपर पुन: प्रतिष्ठित किया और उस पवित्र सिंहासनपर बैठे हुए लुटेरेको हटा दिया। उन्होंने यह बात जोर देकर समझाई और इस सत्यकी एक बार फिरसे घोषणा की कि यह संसारके कुछ शाश्वत और अटल नैतिक नियमोंसे शासित है। उन्होंने बिना किसी हिचकके कहा है कि नियम ही परमात्मा है ।

परमात्माके नियम शाश्वत और अटल हैं। वे परमात्मासे अलग नहीं किये जा सकते हैं। ईश्वरकी पूर्णताकी यह अपरिहार्य शर्त है। इसलिए यह भ्रान्ति फैली कि गौतम बुद्धका परमात्मामें विश्वास नहीं था और वे सिर्फ नैतिक नियमोंमें ही विश्वास करते थे; और स्वयं ईश्वरके बारेमें यह भ्रान्ति फैलनेसे ही निर्वाणके बारेमें भी मतिभ्रम हुआ है। निर्वाणका अर्थ अस्तित्वका सम्पूर्ण अन्त तो बेशक नहीं है। बुद्धके जीवनकी मुख्य बात जो मैं समझ सका हूँ, वह यह है कि निर्वाणका अर्थ है, हममें से सभी बुराइयोंका बिलकुल नष्ट हो जाना, सभी विकारोंका नेस्तनाबूद हो जाना, हमारे अन्दर जो कुछ भ्रष्ट है या भ्रष्ट हो सकता है उसकी हस्ती मिट जाना । निर्वाण श्मशानकी मृत शान्ति नहीं है। वह तो उस आत्माकी जीवन्त शान्ति और सुख है, जिसने अपने-आपको पहचान लिया हो और अनन्त प्रभुके हृदयके भीतर अपना निवास ढूंढ़ निकाला हो ।

तीसरी बात यह है कि सभी प्रकारका जीवन पवित्र है, यह विचार भारतसे बाहर देशोंमें जाकर अपना महत्त्व खो बैठा है। परमात्माको उसके शाश्वत आसन- पर पुनः प्रतिष्ठित करके बुद्धने मानवताकी बड़ी भारी सेवा की थी, लेकिन उससे भी बड़ी सेवा मैं यह मानता हूँ कि उन्होंने सभी प्राणियोंके जीवनका आदर करना सिखलाया, चाहे वे कितने ही छोटे क्यों न हों। मैं जानता हूँ कि उनका अपना भारत उस ऊँचाईतक नहीं उठा जितना ऊँचा कि वे उसे देखना चाहते। मगर जब उनकी शिक्षाएँ दूसरे देशोंमें बौद्ध धर्मके नामसे पहुँची, तब उनका यह अर्थ लगने लगा कि पशुओंके जीवनकी वही कीमत नहीं है जो मनुष्योंके जीवनकी है। मुझे लंकाके बौद्ध धर्मके रिवाजों और विश्वासोंका ठीक पता नहीं है, मगर मैं जानता हूँ कि चीन और बर्मामें उसने कौन-सा रूप धारण किया है। खासकर बर्मामें कोई बौद्ध खुद एक भी जानवर नहीं मारेगा, मगर दूसरे लोग उसे मार और पकाकर लायें तो उसे खाने में उसको कोई झिझक नहीं होगी । संसारमें अगर किसी शिक्षकने यह सिखाया है कि हरएक कर्मका फल अनिवार्य रूपसे मिलता है तो गौतम बुद्धने ही सिखाया है, मगर तब भी, आज हिन्दुस्तान के बाहरके बौद्ध यदि उनसे बने तो, अपने कर्मोंके फलोंसे बचनेकी कोशिश करनेसे बाज नहीं आयेंगे। मगर मुझे आपके धैर्यकी और परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। मैंने उन कुछ-एक बातोंका थोड़ा जिक्र-भर किया है, जिन्हें आपके सामने लाना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ और मैं बड़ी नम्रताके साथ और आग्रहपूर्वक आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप उनपर ध्यानसे विचार करें ।

बस एक और बात कहकर मैं भाषण समाप्त करूंगा। कल रातको स्वागत समितिके सदस्योंने किसी सभामें खादी और लंकाके सम्बन्धपर कुछ कहनेके लिए