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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कना नहीं चाहिए। मैं जानता हूँ कि दुनिया इस बातका इन्तजार नहीं कर रही है कि ईसाईधर्मके बारेमें मैं अपनी कोई राय दूं ।

किसी व्यक्तिका धर्म अन्ततः तो उसके और उसके रचयिताके बीचकी चीज है, जिससे किसी औरको कोई सरोकार नहीं है, लेकिन आज शाम जो मैं अपने विचार आपके सामने रखना चाहता हूँ वह इसलिए कि मैं सत्यकी अपनी खोजमें आपकी सहानुभूति प्राप्त करना चाहता हूँ और इसलिए कि बहुत-से ईसाई मित्र ईसाके उप- देशोंके बारेमें मेरे विचारोंमें दिलचस्पी रखते हैं। अतः यदि मेरे सामने केवल “सरमन ऑन द माउंट " और उसकी मेरी अपनी व्याख्या ही होती, तो मैं यह कहनेमें नहीं हिचकता कि 'हाँ, मैं ईसाई हूँ।' लेकिन मैं जानता हूँ कि इस समय यदि मैं ऐसी कोई बात कहूँ तो इससे बड़ी गलतफहमी पैदा हो जानेका अन्देशा है। मैं झूठा दावा करनेका अपराधी हो जाऊँगा क्योंकि तब मुझे आपको बताना पड़ेगा कि ईसाईधर्मकी मेरी अपनी व्याख्या क्या है, और आपके सामने ईसाई धर्मके बारेमें अपने विचार बतानेकी मेरी कोई इच्छा नहीं है। लेकिन मैं आपको यह बता सकता हूँ कि ईसाई- धर्मके नामसे जो बहुत-कुछ चीजें चलती हैं वे "सरमन ऑन द माउंट " के विरुद्ध हैं। कृपया मेरे शब्दोंपर ध्यान दें । मैं इस समय ईसाई आचरणकी बात नहीं कर रहा हूँ। मैं ईसाई मान्यताओंकी, ईसाई धर्मके उस स्वरूपकी बात कर रहा हूँ, जिस रूपमें पश्चिममें उसे समझा जाता है। मैं यह जानता हूँ और मुझे इसका बहुत दुःख है कि सभी जगह मान्यताओंके मुकाबले आचरणमें बहुत कमियाँ हैं। लेकिन ऐसा मैं आलोचनाकी दृष्टिसे नहीं कह रहा हूँ। मैं अपने अनुभवोंसे जानता हूँ कि हालाँकि मैं अपने कथनोंके अनुसार आचरण करनेकी जीवनमें हर क्षण कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन मेरे कथनके मुकाबले मेरे आचरणमें कमी रह जाती है। इसलिए यह बात आलोचनाकी नीयतसे कहनेका मेरा कोई मंशा नहीं है। लेकिन मैं आपके सामने अपनी बुनियादी कठिनाइयाँ रख रहा हूँ। जब १८९३ में मैंने एक विनम्र विद्यार्थीके रूपमें दक्षिण आफ्रिकामें ईसाई साहित्य पढ़ना शुरू किया तो मैंने अपने आपसे पूछा, क्या यह ईसाइयत है ? ' और मुझे हमेशा वेदोंका यह उत्तर मिला 'नेति-नेति' (यह नहीं, यह नहीं) । और मेरे अन्तरकी गहराइयोंसे आवाज आती है कि मैं ठीक हूँ ।

मैं ईश्वरमें विश्वास रखनेवाला एक विनम्र व्यक्ति होनेका दावा करता हूँ, और मुझे टुकड़े-टुकड़े भी कर दिया जाये तो ईश्वर मुझे शक्ति देगा कि मैं उसके अस्तित्वसे इनकार न करूं, बल्कि जोर देकर कहूँ कि वह है। मुसलमान कहते हैं कि अल्ला है, और उसके सिवा कोई नहीं है। ईसाई भी वही बात कहते हैं, और हिन्दू भी, और अगर कह सकूँ तो बौद्ध लोग भी यही बात कहते हैं, हालाँकि भिन्न शब्दोंमें । हम ईश्वर शब्दकी अलग-अलग व्याख्या भले ही करते हों उस ईश्वरकी, जिसमें हमारी यह पृथ्वी ही नहीं, ऐसी करोड़ों, अरबों पृथ्वियाँ समाई हुई हैं। हम तुच्छ रेंगनेवाले जीव, जिन्हें उसने इतना असहाय बनाया है, हम उसकी महानता, उसके असीम प्रेम, उसकी अगाध करुणाको कैसे नाप सकते हैं ? उसकी करुणा ऐसी है कि जब मनुष्य धृष्टतापूर्वक उसके अस्तित्वसे इनकार कर देता है, अन्य मनुष्योंका गला काटता है तो वह इसे भी बर्दाश्त कर लेता है। जो ईश्वर इतना क्षमाशील,