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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रायश्चित्त करनेमें श्रीयुत नाडकर्णीका साथ देनेकी जरूरत नहीं है क्योंकि मैं नहीं मानता कि उस नामके किसी ऐतिहासिक व्यक्तिका वध राम नामके किसी ऐतिहासिक व्यक्तिने किया था। हिन्दूसमाजके तथाकथित निम्न वर्गोंकि, विशेष रूपसे तथाकथित अस्पृश्योंके सामान्य उत्पीड़नके लिए एक हिन्दूके नाते मैं अपने जीवनके क्षण-क्षण में प्रायश्चित्त कर रहा हूँ। मेरी रायमें शम्बूकके जैसे दृष्टान्तोंका वर्णाश्रमके प्रश्नपर धार्मिक दृष्टिसे की जानेवाली चर्चामें कोई स्थान नहीं है। इसलिए मेरा विचार केवल यह बतानेका है कि मैं वर्णाश्रम किसे समझता हूँ, और यदि मेरे सामने यह सिद्ध कर दिया जाये कि वर्णाश्रमकी जो व्याख्या मैं करता हूँ उसके लिए हिन्दू-धर्ममें कोई प्रमाण नहीं है तो मैं वर्णाश्रम व्यवस्थाको अस्वीकार करने में हिचकूंगा नहीं । जैसा कि श्रीयुत नाडकर्णी कहते हैं, वर्ण और आश्रम, ये दो भिन्न शब्द हैं। चार आश्रमोंकी व्यवस्था मनुष्यको जीवनका उद्देश्य ज्यादा अच्छी तरह पूरा करने में सहायक और इसके लिए वर्णका नियम आवश्यक है। वर्णके नियम के अनुसार व्यक्तिको अपनी आजीविकाके लिए अपने बाप-दादोंका वैध धन्धा करना चाहिए। मैं इसे एक सर्व- व्यापी नियम मानता हूँ जो मानव-परिवारका नियमन करता है। इसको मंग करनेका परिणाम गम्भीर होता है जैसा कि हमारे लिए हुआ है। लेकिन मनुष्योंकी बहुत बड़ी संख्या अनजाने ही अपने बाप-दादोंका पुश्तैनी धन्धा करती है। हिन्दू धर्मने इस नियमकी खोज करके और सोच-समझकर इसका पालन करके मानव जातिकी एक महान सेवा की है। यदि पशुओंसे भिन्न मनुष्यका कार्य ईश्वरको जानना है, तो यह स्वाभाविक ही है कि वह अपने जीवनका मुख्य भाग यह पता चलाने में ही न गँवा दे कि जीविका अर्जित करनेके लिए कौनसा धन्धा उसके लिए सबसे उपयुक्त होगा। इसके विपरीत, वह देखेगा कि उसके लिए अपने पिताका धन्या करना ही सर्वोत्तम है, और वह अपना खाली समय और अपनी प्रतिभा खुदको उस कार्यके योग्य बनानेमें लगायेगा जो मनुष्य जातिके लिए निर्धारित किया गया है।

इसलिए यहाँ मेरे पत्रलेखकने जो कठिनाई बताई है वह उठती ही नहीं । क्योंकि विभिन्न प्रकारकी स्वैच्छिक सेवाएँ करते हुए भी अपनेको उस निर्धारित कामके योग्य बनानेमें किसीके सामने कोई रुकावट नहीं है। इस प्रकार श्रीयुत नाडकर्णी, जो ब्राह्मण माता-पिताकी सन्तान हैं, और मैं, जो वैश्य माता-पिताकी सन्तान हूँ, दोनों ही वर्णके नियमके साथ पूरी संगतता रखते हुए आवश्यकता पड़नेपर निश्चय ही अवैतनिक राष्ट्रीय स्वयंसेवकोंकी भाँति, या अवैतनिक परिचारकोंकी भाँति या अवैतनिक भंगियों की भाँति सेवा कर सकते हैं, हालाँकि वर्णके नियमानुसार ब्राह्मण होने के नाते वह अपनी रोटीके लिए अपने पड़ोसियोंकी उदारतापर निर्भर करेंगे और वैश्यके नाते मैं दवा बेचकर या किरानेकी अन्य चीजें बेचकर अपनी रोटी कमाऊँगा। जबतक कोई व्यक्ति कोई उपयोगी सेवाके बदले पुरस्कारका दावा नहीं करता तबतक वह वैसी सेवा करनेको स्वतन्त्र है।

वर्ण-नियमकी इस संकल्पनामें कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्तिसे श्रेष्ठ नहीं है। ऐसे सभी धन्धे जो वैयक्तिक या सार्वजनिक नैतिकताके विरुद्ध नहीं है, बराबर दर्जे के