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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो तुरन्त उसका उपयोग करूँ । वर्तमान पत्रोंके प्रभावकी मर्यादा होती है। महात्माओंका असर तो यह होता है कि लोग उनका लाभ उठा लेते हैं। सत्याग्रहीका असर भी सीमारहित नहीं होता। पत्रकारके रूपमें कच्छमें मेरा प्रभाव शून्य कहा जा सकता है, महात्माके रूपमें यह प्रभाव उधार पासेमें है और सत्याग्रहीके नाते समयानुसार । सत्याग्रहीका असर प्रबल होनेके बावजूद कालक्षेत्र और संयोगोंको लेकर उसकी भी सीमा है। इस समय मेरा सत्याग्रह कच्छके मेघवालोंके पास नहीं पहुँच सकता। संयोग प्रतिकूल है और फिर कच्छ मेरे क्षेत्र के बाहर है। इसलिए मेरे पास उपाय केवल गरीब - की विनय और प्रार्थनाका ही है। वह प्रार्थना में इस लेखके द्वारा महारावश्री और उनके अमलदारोंसे करता हूँ।


लेकिन कच्छकी जनताके पास तो, यदि उसमें हिम्मत और दया हो, तो बहुत सारे उपाय हैं। उसे न तो बलवा करनेकी जरूरत है और न बहुत कड़े उपाय अप- नानेकी । रूठ जाने के उपायका प्रयोग भारतीय जनताने हमेशा किया है। जब राजा न्याय न करे तब जनता रूठ सकती है और राजाको समझा सकती है। आजकल तो हम रूठनेकी शक्ति भी खो बैठे हैं। महाजन लघुजन हो बैठे हैं। मुझे ऐसे समयका स्मरण है जब महाजनकी सत्ता राजासे भी ज्यादा थी। लेकिन आज महाजनमण्डल नाम मात्रका रह गया है। उसमें स्वार्थ और अनीतिने प्रवेश कर लिया है और वे जो एक समय लोगोंके प्रतिनिधि और सच्चे रक्षक थे, अब नहीं रहे बल्कि बहुत स्थानोंपर भक्षक बने दिखाई देते हैं। इसीसे राजा और अमलदार जनताकी ओरसे निडर हो गये हैं और लापरवाह तथा स्वेच्छाचारी बन बैठे हैं। इस स्थितिको सुधारनेका उपाय केवल लोक-शिक्षा है।

इस शिक्षाका अर्थ स्कूलकी शिक्षा नहीं अपितु कितने ही सुधारक जो रणमें हारकर भी विवेक नहीं छोड़ते, मर्यादाका पालन करते हैं, गाम्भीर्य रखते हैं और अपने चरित्र बलसे राजा-प्रजा दोनोंको ढकते हैं और दोनोंपर अपना प्रभाव डालते हैं - ऐसी है वह शिक्षा ! वे सच्ची लोक-शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। तिसपर भी यदि देर लगे तो भले ही लगे परन्तु यही सबसे सीधा और छोटा रास्ता है।

जबतक ऐसा सुधारक वर्ग जागे तबतक जिसे जो-जो सूझे वह सत्य और अहिंसाका मार्ग ग्रहण करे। उपर्युक्त लेखकने मुझे लिखनेका मार्ग ग्रहण किया है। वह केवल छोटा-सा कदम है। यदि वह अधिक बड़ा कदम उठाना चाहे तो उसे मेघवाल जातिमें प्रवेश करना चाहिए और उनके दुःखोंकी विस्तारसे जाँच करनी चाहिए । कुछ एक दुःखोंका निवारण उनकी जातिमें प्रवेश करनेपर हो सकता है। इसके अतिरिक्त युवक वर्ग हारकर बाहर बैठा रहे इससे बेहतर तो यह होगा कि वह जहाँ-जहाँ अनीतिका, अन्यायका दावानल भभकता हो वहीं जा बैठे। त्यागपूर्वक साधना करनेवालोंको सीधे उपाय खुद ही मिल जाते हैं।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २०-११-१९२७