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४. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

१८ सितम्बर, १९२७

प्रिय सतीश बाबू,

आपका पत्र मिला। प्रफुल्ल बाबूको मैंने लिखा अवश्य था । प्रफुल्ल बाबूका पत्र इसके साथ है। मुझे याद नहीं कि मैंने उनपर प्रतिष्ठान में दुबारा प्रवेश करनेके लिए जोर दिया हो । यही बात मैं उनको भी लिख चुका हूँ। उन्हें न्यास-मण्डल में रहना है या नहीं, इसका निर्णय अब उन्हें करने दीजिए।

जैसा आपने लिखा है, मैं आपसे सुरेश बाबू और अन्य लोगोंका मन जीतनेकी अपेक्षा करता हूँ। जब लोग हमारे साथ अच्छी तरह निभा न सकें तो हमारे लिए अपनेको ही दोषी ठहराना सर्वोत्तम है । असीम उदारतामें तो सब-कुछ आ जाता हैं, वरना वह असीम नहीं रह जाती। हमें चाहिए कि हम अपने प्रति कठोर तथा अपने पड़ोसियोंके प्रति नरम बनें। क्योंकि हमें इसका ज्ञान नहीं होता कि उनकी कठिनाइयाँ क्या हैं और उनपर वे किस प्रकार विजय पाते हैं ।

सप्रेम,

आपका,
बापू

[ पुनश्च : ]
आशा है आपने वह रकम अभय आश्रमको भेज दी होगी ।
अंग्रेजी (जी० एन० १५७६) की फोटो-नकलसे।

५. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

त्रिचनापल्ली
मोनवार [ १९ सितम्बर, १९२७]

[१]

बहनो,

तुम्हारी चिट्ठियाँ मिलती रहती हैं। तुम्हारे कामका दर्शन यहाँ बैठे-बैठे किया करता हूँ। जो अपनी शक्तिके अनुसार काम करता है, वह सब-कुछ करता है। किन्तु काम करने में हमें अपनेमें उस 'गीता' दृष्टिका विकास करना चाहिए जो कि हमारा लक्ष्य है। 'गीता'-दृष्टि यह है कि सब काम सेवाभावसे करें । सेवाभावसे करें, यानी ईश्वरार्पण करके करें । और जो ईश्वरार्पण करके करता6 है, उसमें यह भाव नहीं

  1. १. गांधीजी इस तारीखको त्रिचनापल्ली में थे।