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२११. भाषण : लंका भारतीय संघ, कोलम्बोमें

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२५ नवम्बर, १९२७

मैं जानता हूँ कि आपके सामने बहुत-सी राजनीतिक समस्याएँ उठती रहती हैं। जो लोग अपने देशसे जाकर किसी दूसरे देशमें बसते हैं - और ऐसा तो हम करते ही हैं उनके आचरणको मार्ग-दर्शन देनेवाला एक सिद्धान्त मेरे विचारसे यह होना चाहिए कि वे अपने अंगीकृत देशके लोगोंके सुख-दुःखको अपना सुख-दुख मान कर चलें । उनका हित-साधन ही हमारा मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। हमारे हितका स्थान उनके बाद ही आना चाहिए । यही मुझे एक शोभनीय मार्ग प्रतीत होता है, और यह उस महान सिद्धान्तके भी अनुकूल है जो हमें सिखाता है कि हम दूसरोंके साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसे व्यवहारकी अपेक्षा हम अपने प्रति दूसरोंसे रखते हैं। जैसा कि आप जानते हैं, इसी सिद्धान्तके अनुसार सोचते हुए मैंने भारत-स्थित अंग्रेजोंसे बार-बार कहा है कि उन्हें, वे जिस-जिस देशमें रहते हैं, उस देशके करोड़ों अभावग्रस्त लोगोंके हितको ही अपना हित बना लेना चाहिए और किसीने भी मेरे इस कथनके औचित्यपर शंका नहीं की है। हमारे और हमारे देशमें आनेवाले विदेशियोंके सम्बन्धों- का निर्धारण एक नियमके अनुसार हो और जब हम खुद विदेशोंमें जाकर रहें तो हम किसी दूसरे नियमसे संचालित हों, ऐसा नहीं हो सकता । और यद्यपि मैं लंकाको पराया देश नहीं मानता और यद्यपि सिंहलियोंके मुँहसे यह सुनकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई है कि वे भारतको अपनी मातृ-भूमि ही समझते हैं, फिर भी उनके साथ अपने सम्बन्धोंका नियमन करते समय हम यदि यह मानकर चलें कि वे विदेशी हैं तो बहुत अच्छा हो । सबसे निरापद तरीका यह है कि जब हम कोई सेवा करना चाहें तो उन्हें अपना कुटुम्बी मानें और जब अपने किसी अधिकारपर आग्रह करना हो तो कुटुम्बका आधार न लें । सच तो यह है कि मैंने जीवनके इस सिद्धान्तको, जिसे मैं आच- रणका स्वर्णिम सिद्धान्त कहता हूँ, भारतके अन्दर भी प्रान्तोंके पारस्परिक सम्बन्धोंका निर्धारण करनेमें लागू किया है। उदाहरणके लिए, जब-कभी मैं बंगाल या मद्रास या गुजरातके अलावा किसी अन्य प्रान्तमें गया हूँ और जहाँ-कहीं मैंने गुजरातियोंकी बस्तियाँ देखी हैं, मैंने गुजरातियोंसे यह कहनेमें कभी भी कोई संकोच नहीं किया है कि वे जिस प्रान्तमें जाते हैं उस प्रान्तके लोगोंके हित-साधनको अपने हित-साधनसे अधिक महत्त्व दें। मुझे तो मानव-मानवके आपसी व्यवहारमें मीठा सम्बन्ध कायम रखनेका दूसरा कोई तरीका ही दिखाई नहीं देता, और अपने दीर्घकालके अनुभवके बलपर मेरी यह धारणा पक्की हो गई है कि मैंने अभी जो स्वर्णिम सिद्धान्त बताया है, उसके पालनमें जब कभी कोई व्यवधान पड़ा है, तभी झगड़े-टंटे, बल्कि एक-दूसरेके सिर फोड़नेकी भी वारदातें हुई हैं। अतः मेरे देशभाइयो, मुझे इसमें तनिक भी सन्देह

  1. १. तमिलमें इस भाषणका अनुवाद श्री राजगोपालाचारीने किया था।