पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/३५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सकूं या नहीं, इतना तो निश्चित समझिए कि मेरा मन सदा आप लोगोंके साथ रहेगा। और मैं आपके जीवनक्रमको पूरी-पूरी व्यक्तिगत रुचिसे देखता रहूँगा |

जब मैंने आपके देशकी यात्रा करनेका निश्चय किया था, उसी समय अपने ऊपर यह कठोर बन्धन लगा लिया था कि मैं आपकी राजनीतिक समस्याओंके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहूँगा, और न अभी इस विषयमें कुछ कहनेका मेरा इरादा है। लेकिन मुझे मालूम है कि अभी एक महत्त्वपूर्ण आयोग आपकी राजनीतिक दशाकी जाँच कर रहा है। जहाँतक मुझे समय मिल पाया है, मैं इसकी कार्यवाहीका अध्ययन करनेकी कोशिश करता रहा हूँ। और मैं यही कामना करना चाहूँगा कि इसकी कार्यवाही और इसके निष्कर्ष इतने बुद्धिमत्तापूर्ण और अच्छे हों कि वे इस देश के लिए, जो दुनियाके सर्वोत्तम देशोंकी कोटिमें आता है, विशुद्ध वरदान साबित हो सकें ।

राजनीतिक सवालोंपर कुछ कहे बिना मैं यह आशा भी व्यक्त करना चाहूँगा कि जिस प्रकार एक होकर आपने मुझ जैसे अदना आदमीका स्वागत-सत्कार किया है, उसी प्रकार एक होकर आप अपनी राजनीतिक आकांक्षाको पूरा करने के लिए भी काम करेंगे, अपने तमाम मतभेद भुला देंगे, और बजाय ऐसा सोचनेके कि हम हिन्दू हैं और हम बौद्ध, हम ईसाई हैं और हम मुसलमान आदि तथा हमारा एक दूसरेसे कोई सरोकार नहीं है, आप अपने आपको इस महान देशकी जनता समझेंगे और अपनी उच्चतम राजनीतिक आकांक्षाको पूरा करेंगे। खुद मेरी समझमें तो यह बात कभी नहीं आ पाई है कि कोई अल्पसंख्यक जाति ऐसा क्यों सोचे कि यदि उसे पृथक् प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता तो उसकी माँगोंपर पूरा ध्यान नहीं दिया जायेगा और वे उसे नहीं मिलेंगी। ऐसा रुख तो मुझे बराबर राष्ट्रीय भावनाके अभावका सूचक-सा जान पड़ा है।

आज सुबह अपने देश भाइयोंके सामने बोलते हुए मैंने जो विचार व्यक्त किया था, उसे यहाँ फिर दोहराना चाहता हूँ । वह यह है कि जिन लोगोंने लंकाको अपने देशकी तरह अपना लिया है और अब यहाँ सिर्फ अपनी जीविका ही नहीं कमा रहे हैं, बल्कि और भी बहुत कुछ यहाँसे प्राप्त कर रहे हैं, उन्हें अपने हितोंके मुकाबले यहाँके मूल निवासियों अर्थात् सिंहलियोंके हितोंको प्राथमिकता देनी चाहिए। लेकिन, मैं जानता हूँ कि इस विषयमें मुझे अधिक गहराई और विस्तारसे कुछ नहीं कहना चाहिए ।

अब मैं एक-दो वाक्य उस विषयपर कहना चाहूँगा जिसके सम्बन्ध में मैं बराबर सभी सभाओंमें बोलता आ रहा हूँ। मेरा मतलब अस्पृश्यताकी घोर बुराईके सन्दर्भ में जाति-भेदके सवालसे है।

मैंने जिससे भी इस विषयपर बातचीत की है, सभीने मुझे यह विश्वास दिलाया है कि बौद्ध धर्ममें अस्पृश्यताकी बात तो दूर रही, जाति-मेदतक के लिए कोई आधार नहीं है। किन्तु, बड़े आश्चर्यकी बात है कि इस देशके बौद्धोंके बीच भी ऐसा कड़ा सामाजिक विभाजन है और ऊँच नीचकी भावना है। यह भावना इतनी प्रबल है कि अस्पृश्यताकी सीमातक जाती है। उदाहरण के लिए, रोडियोंके सम्बन्धमें यही बात लागू