वे अगर चाहें तो इस बातसे इनकार कर सकते हैं, क्योंकि वे कहेंगे कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्मका अंग नहीं है और बहुत अंशोंतक उनका कहना सही भी होगा । कितने ही हिन्दू भी यह नहीं मानते कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्मका ही अंग है, बल्कि वे तो इसीमें अपना गौरव मानेंगे कि बौद्ध धर्मको हिन्दुस्तानसे उन्होंने मार भगाया। मगर ऐसा कुछ नहीं है। बात दरअसल यह है कि स्वयं बुद्ध भी बड़ेसे-बड़े हिन्दुओंमें से थे, और उन्होंने हिन्दू धर्मको सुधारनेकी कोशिश की थी। इसमें उन्हें सफलता भी मिली थी । उस समय हिन्दू धर्मने यही किया कि बुद्धकी शिक्षाओंमें जो सबसे अच्छी और भली थीं, उन्हें अपना लिया था। इसीलिए मैं कहता हूँ कि इस प्रकार बुद्धकी शिक्षाएँ अपने में जज्ब कर लेनेसे हिन्दू धर्मका विस्तार हुआ, वह अधिक व्यापक बन गया था । हिन्दू- धर्मने काम इतना ही किया कि बुद्धकी शिक्षाओंको अपने में समा लेनेके बाद उसके आसपास जो मैल जमा हो गया था उसे साफ करके दूर कर दिया । लंकाके बौद्धोंको समझानेका सबसे अच्छा तरीका एक ही है और वह यह कि आप हिन्दू धर्मके इस अधिक व्यापक और उदार स्वरूपके अनुरूप आचरण करें। बुद्धने जो एक बात भारतको सिखलाई वह यह थी कि परमात्मा कोई ऐसा जीव नहीं जो निर्दोष प्राणि- योंकी बलिसे खुश हो जाये । इसके विपरीत उनका तो कहना था कि परमात्माको खुश करनेके लिए बलि चढ़ानेवाले दुहरा पाप बटोरते हैं। इसलिए अगर आप अपने धर्मका सच्चा पालन करना चाहते हैं तो आपको अपने एक भी मन्दिरमें निर्दोष प्राणियोंकी बलि नहीं चढ़ानी चाहिए। सारे भारतवर्षके हिन्दुओंके विरुद्ध खड़ा होकर भी मैं यह कहनेको तैयार हूँ कि प्रयोजन कोई भी क्यों न हो, परमात्माको खुश करनेके लिए ही क्यों न हो एक भी पशुकी बलि चढ़ाना बुरा काम है, पाप है, गुनाह है।
दूसरी बात जो गौतम बुद्धने सिखलाई वह यह थी कि आज जिसे जाति कहा जाता है और जो उनके जमानेमें भी थी -- वह सरासर गलत है, यानी उन्होंने अपने जमानेमें श्रेष्ठता और हीनताका जो खयाल हिन्दू धर्मको नष्ट कर रहा था, उसे दूर कर दिया था। मगर उन्होंने वर्णाश्रमसे इनकार नहीं किया। वर्ण-धर्म और जाति प्रथा एक ही चीज नहीं हैं। जैसा कि मैंने दक्षिण भारतमें कई बार कहा है और 'यंग इंडिया' में विस्तारसे लिखा है, वर्ण-धर्म और जाति प्रथामें कोई समान तत्त्व नहीं है। जबकि वर्ण-धर्म प्राणदाता है, जाति-प्रथा प्राणनाशक है; और जाति-प्रथाका सबसे घृणित स्वरूप है -- अस्पृश्यता । आप अपने बीचसे अस्पृश्यताको दूर करें । मैं निर्भीकतापूर्वक कहता हूँ कि आज अस्पृश्यताको जिस रूपमें व्यवहृत किया जा रहा है उसके लिए हिन्दू धर्ममें कहीं कोई स्थान नहीं है। अगर आप अपने बौद्ध देश-बन्धुओंके बीचमें सच्चे हिन्दू धर्मका आचरण बनाये रखना चाहते हैं तो किसी भी आदमीको भूलकर भी अस्पृश्य मत मानिए। अफसोस तो यह है कि लंकाके बौद्धोंने स्वयं भी हिन्दुओंका यह अभिशाप अपना लिया है। जिनके बीचमें जाति-प्रथा होनी ही नहीं चाहिए थी, उनमें भी आज जातियाँ हैं। परमात्माके लिए यह भूल जाइए कि कोई बड़ा है और कोई छोटा । बस यही याद रखिए कि आप सब हिन्दू हैं, और एक दूसरेके सगे भाई हैं ।