२५८. पत्र : जे० एन० जिनेन्द्रदासको
स्थायी पता : आश्रम, साबरमती
११ दिसम्बर, १९२७
मुझे आपका लम्बा पत्र मिला था । लोकमतके दबावसे दुखमें पड़े लोगोंको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर प्रयाण करनेसे रोकना या उसका नियमन करना सम्भव नहीं है, और कानून बनाकर उसे रोकना गलत होगा। लेकिन लंकामें बुद्धिमत्तापूर्ण और लोगोंकी दशा सुधारनेवाले कानून बनाकर गरीब मजदूरोंके आवसनसे जुड़ी हुई बुराइयोंको रोकनेमें काफी कुछ किया जा सकता है, फिर चाहे ये मजदूर किसी भी जातिके क्यों न हों। आपको लंकामें ऐसा लोकमत तैयार करना चाहिए जो मजदूरोंके मालिकोंसे ज्यादा मानवीय व्यवहारकी, पर्याप्त मजदूरीकी, और स्वास्थ्यप्रद तथा खुले आवासोंकी माँग करे । भारतीय मजदूरोंको विदेशी माननेके बजाय आपको उन्हें अपना ही मानना चाहिए। आखिरकार ये मजदूर लंकामें इसीलिए जाते हैं क्योंकि वहाँ उनकी जरूरत है ।
हृदयसे आपका,
४५, परानावाडिया रोड
- अंग्रेजी ( एस० एन० १२६४४) की माइक्रोफिल्मसे ।
२५९. एक पत्र
स्थायी पता : आश्रम, साबरमती
११ दिसम्बर, १९२७
मुझे आपका पत्र मिला। मैं मुक्ति प्राप्त करनेके लिए ईसाई धर्मको अपनाना किसी भी रूपमें आवश्यक नहीं मानता। मैं ईसा मसीहके अनन्य देवत्वमें विश्वास नहीं करता । मैं ऐसा नहीं मानता कि सभी रोमन कैथोलिक बिशपोंका जीवन सन्देहसे परे है। मेरी रायमें विवाहके बारेमें ऐसा सोचना कि इसमें किसी भी एक पक्षकी प्रेरणा पर पाशविक भोग किया जाता है, विवाहके बारेमें बहुत हल्का दृष्टिकोण अपनाना है। विवाहके इससे कहीं ज्यादा उत्तम उपयोग हैं। मुझे इसका पता नहीं है कि धर्म किसी भी दम्पत्तिके लिए यह जरूरी बताता हो कि एकके कहनेपर दूसरा सम्भोग