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२६९. पत्र: वसुमती पण्डितको

बालासोर
१६ दिसम्बर, १९२७

जमनालालजी, मगनलाल आदिके सामने तुमने अपने मनकी बात कह दी, यह तुमने बहुत ही बुद्धिमानीका काम किया। जिस व्यक्तिने अपने दोष देख लिए हैं, और जिसने अपनेको बिलकुल बदल लिया है उसके सामने अपनी गुजरी जिन्दगीकी बातें कहने में शर्म कैसी ? किन्तु पाप भी रोग है और रोग-मात्र पाप है। मुझे यदि आन्त्र- वृद्धिकी चर्चा करते हुए संकोच हो तो तुम्हें मानसिक आन्त्रवृद्धिकी चर्चा करते हुए संकोच होगा। हम जबतक रोगको पाले रहेंगे तबतक हमें शर्म लगेगी, संकोच होगा, मानसिक पीड़ा होगी। किन्तु जिस प्रकार ऑपरेशन करके रोगको जड़से निकाल फेंकनेके बाद हमारा शरीर हलका हो जाता है, उसी प्रकार हमारा मन भी हलका हो जाना चाहिए ।

[ गुजरातीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई

२७०. पत्र : बहरामजी खम्बाताको

१६ दिसम्बर, १९२७

भाईश्री ५ खम्बाता,

जबतक भाई गोविन्दजी चेडा तुम्हारी शरण में हैं तबतक मुझे कोई चिंता नहीं है। डा० जीवराज मेहता क्या कहते हैं, ऑपरेशन कौन करेगा आदि बातें मुझे लिखते रहना ।

आशा है तुम्हारा स्वास्थ्य अब सुधर गया होगा।

तुम दोनोंको
बापूके आशीर्वाद

[ पुनश्च : ]
१८-२१ कटक
२३ मद्रास
गुजराती (सी० डब्ल्यू० ५०११) से ।
सौजन्य : तहमीना खम्बाता