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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इस विज्ञप्तिसे तो खादीके विरुद्ध जहरीला पक्षपात और बुनाई कलाका तथा जुलाहोंकी स्थितिका अज्ञान ही टपकता है। लेखक यह भूल जाता है कि दुनियामें एक दिन वह भी था, जब सारे संसार में ताना और बाना, दोनों ही के लिए हाथकता सूत इस्तेमाल करनेमें जुलाहोंको खुशी होती थी और उन्होंने उस समय जो कला दिखलाई थी, उससे आगे अबतक कोई नहीं बढ़ सका है। इस सुन्दर अ॰ भा॰ प्रदर्शनी के बाहर ही खादी-प्रदर्शनी में जाकर लेखक अपनी भूल तुरन्त ही सुधार सकता था। वहाँ वह देखता कि जुलाहे उसी आराम और सहूलियत से चरखेके सूतके ताने-बानेका अत्यन्त सुन्दर कपड़ा बुन रहे थे, जिस सहजतासे वे मिलके सुतसे बुनते। यह साबित करना मुश्किल नहीं है कि जहाँ मिलका सूत अन्तमें, और वह भी बहुत देरके बाद नहीं, शीघ्र ही जुलाहेको मार डालेगा, यह चरखेका सूत उसे जरूर ही जिन्दगी देगा, और अभी भी वह कितने ही लोगोंको कसाईके काम या पाखाना साफ करनेके कामसे बचा भी चुका है। हर दस कतैयेके पीछे एक बुननेवाला जरूर ही दिनभर बुनने में लगा रहता है, एक धुनियेको रोज सारे दिन करनेको काम मिल जाता है, धोबियों, दर्जियों, बढ़ई-लोहारों, रंगरेजों और छीपों वगैराको जो अधिक काम मिलता है, उसका तो जिक्र ही नहीं।

इस विदेशी और भारत-विरोधी भावनावाली प्रदर्शनीका कांग्रेसके तत्वावधानमें होना ही, ऊपर बतलाई गैर-जिम्मेदारीको भावनाका एक प्रत्यक्ष और जबर्दस्त प्रमाण है। मेरा मन यह नहीं मानता कि किसी कांग्रेसीने यह बला सोच-समझकर अपने सिर ली होगी। पर मैं यह कहे बिना भी नहीं रह सकता कि इस घुटालेका कारण हैं अविवेक, असावधानी और दायित्वहीनता

बेशक खादी-प्रदर्शनी रूपी चींटीको इस हाथीखानेके बाहर फेंक देना अच्छा ही रहा। अफवाह तो है कि मद्रास सरकारको अ॰ भा॰ प्रदर्शनीके भीतर खादी प्रदशनीका किया जाना मंजूर नहीं था। मुझे तो इससे जरूर ही सुविधा हुई। क्योंकि इस प्रदर्शनीकी असलियतका कुछ पता पा लेनेके बाद, मेरे लिए खादी-प्रदर्शनी खोलने के लिए भी मुख्यतः उस विदेशी प्रदर्शनी में जाना जो हमारी राष्ट्रीय जिल्लतका परिचायक था, बहुत मुश्किल लगता। दूसरी ओर खादी-प्रदर्शनी चींटीके समान होते हुए भी स्वदेशी कलाका नमूना थी। यह तो खादी और उससे हो सकनेवाले कामोंको प्रत्यक्ष दिखलाने के लिए थी। इसके पास एक भारतीय ललित कला मण्डप भी था जो डाक्टर जेम्स एच॰ कजिन्सके परिश्रमका फल है। बेशक इस नामधारी अ॰ भा॰ प्रदर्शनी में कुछ भारतीय या सोलहों आने भारतीय उद्योग द्वारा तैयार वस्तुएँ भी थीं, मगर वह तो सिर्फ असावधान लोगोंको फँसा लेनेके लिए थीं और विलायती मालके लिए—जिसकी वहाँपर प्रधानता थी—एक ढाल मात्र थीं।

भविष्यकी स्वागत समितियाँ चेत जायें।

[अंग्रेजीसे]]
यंग इंडिया, ५-१-१९२८