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३५२. बन्धुत्व विषयक चर्चा[१]

[१५ जनवरी, १९२८ से पूर्व]

बन्धुत्वकी भावना तभी पूर्णता प्राप्त कर सकती है जब उसके प्रत्येक सदस्यका आचरण धार्मिक और आत्मत्याग पूर्ण हो। इस निष्कर्षपर मैं बहुत दिनों पहले हो, बहुत विचार, मनन और जितने लोगोंसे मिला सबके साथ बातें करके पहुँच गया था कि सभी धर्म सच्चे हैं, और साथ ही, सभी में कुछ-न-कुछ दोष या त्रुटियाँ भी जरूर हैं, और अपने धर्मपर दृढ़ रहते हुए मुझे दूसरे धर्मोंको भी हिन्दू धर्म जैसा ही प्रिय मानना चाहिए। इससे यह बात तुरन्त ही निकलती है कि मुझे हर आदमीको अपने निकटसे-निकट सगे और प्रिय सम्बन्धीके समान प्यार करना चाहिए। आदमी आदमी में बड़े-छोटे, ऊँचे-नीचेका अन्तर नहीं रखना चाहिए। अगर हम हिन्दू हैं तो हमें यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि कोई ईसाई हिन्दू हो जाये, और मुसलमान हैं तो हमें यह दुआ नहीं माँगनी चाहिए कि हिन्दू या ईसाई लोग मुसलमान बन जायें। हमें तो एकान्तमें भी यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि किसीका धर्म परिवर्तन हो; बल्कि हमारी आन्तरिक प्रार्थना तो यह होनी चाहिए कि जो हिन्दू है वह और अच्छा और सच्चा हिन्दू बने, जो मुसलमान है वह और अच्छा मुसलमान बने, और जो ईसाई है वह और सच्चा ईसाई बने। बन्धुत्वका यही मूल मन्त्र है। श्री एन्ड्र्यूजने ईसाको सूलीपर होनेवाली यंत्रणा और उनके महान बलिदानकी जो कथा पढ़ सुनाई है; पण्डित खरे और इमाम साहबने जो गीत और भजन सुनाये हैं—सबका एक यही अर्थ है। अगर एन्ड्र्यूजने केवल ऊपरी सौजन्य या मात्र शिष्टाचारके ही लिए उनसे गानेकी प्रार्थनाकी थी तो उन्होंने बन्धुत्वके अपने सिद्धान्तके पालनमें चूक की है। वैसी स्थितिमें उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। मगर मैं चार्लीको बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे पता है कि जिस प्रकार मैं दूसरे धर्मोंसे

  1. अन्तर्राष्ट्रीय संघको परिषदके सदस्य और उनके मित्र आश्रम में ठहरे थे। उन्होंने "बन्धुत्वके मूलभूत उद्देश्य" के विषय में चर्चा की। महादेव देसाईने "द वीक" (यह सप्ताह) नामक अपने लेख में "द फाउन्डेशन ऑफ फेलोशिप" (बन्धुत्वकी आधार शिला) शीर्षकके अन्तर्गत इसका हवाला दिया था : "चर्चा दो दिनतक चली।. . .उसमें बिना किसी संकोचके खुले दिलसे विचार-विनिमय हुआ, जिससे अन्तमें एक दूसरेके विचारोंकी ज्यादा अच्छी समझ पैदा होना अनिवार्य है।. . .इसके बारेमें लोगों में कोई भी मतभेद नहीं था कि सबको व्यापकतम सहिष्णुता पैदा करनेके उद्देश्यके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए, आलोक, ज्ञान या पुण्यकी शक्तियों के साथ मिलकर, उनके पक्षधर बनकर अंधकार था अज्ञानकी शक्तियोंसे लोहा लेना चाहिए था जैसा दीनबन्धुने कहा था, ईश्वरको बिलकुल ही त्यागकर भौतिकवादी बननेवालोंके विरुद्ध खड़े होना चाहिए। इस बातपर सभी सहमत जान पढे, लेकिन यह भी लगा कि कई सदस्य इसके सर्वसंगत निष्कर्षसे बच निकलना चाहते हैं। इस सर्वसंगत निश्कर्षको गांधीजीने इस सभा और अन्य सभाओंके दौरान काफी विस्तारसे स्पष्ट रूपमें प्रस्तुत किया।..."