पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/५२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४९६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चीजोंको देखनेपर मैं इस विचारकी ओर झुका कि अभी हालके लिए तो बैठक मुल्तवी की जा सकती है। पहले-पहले मैंने वल्लभभाईको अपनी यह बदली हुई राय बतलाई और वे उससे सहमत हुए। दूसरे मित्र भी दूसरे स्वतन्त्र कारणोंसे इसी नतीजेपर पहुँचे। इसलिए इस बैठकका विचार फिलहाल स्थगित कर दिया गया है।

आशा है कि इस स्थगनसे अपरिवर्तनवादी लोग निराश न हो जायेंगे। मैं यह अभी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि इसे स्थगित रखना ही अच्छा रहेगा या नहीं। जब कि राष्ट्रीय कार्यक्रमके रूपमें असहयोग अंशतः स्थगित है, असहयोगियोंको व्यक्तिगत रूपसे अपनी श्रद्धाकी परीक्षा करनेका अवसर मिला है। दलके सहारेके बिना अपने ही पैरों अलग खड़े रहनेसे उनकी श्रद्धा और भी दृढ़ हो जायेगी। जब कोई ध्येय इतना सबल बन जाता है कि विश्वासके दर्जेतक उठ जाता है—जैसा कि असहयोग उनके लिए हो गया होगा जो अबतक उसका पालन सचाईसे करते आ रहे हैं—तो वह ध्येय अपने ही बलपर खड़ा रहता है, उसे अपने भीतर ही से आवश्यक पोषण मिल जाता है। हमें देशकी जनतापर ऐसा भरोसा भी रखना चाहिए कि जब कमी कोई प्रगतिशील आन्दोलन शुरू करना सम्भव होगा, वे सभी लोग उसमें फिरसे बखुशी शामिल हो जायेंगे, जिन्होंने असहयोगको छोड़ दिया था। इस घड़ी मैं आगेका कोई कदम नहीं सुझा सकता। क्योंकि मैं बीचके लिए जो भी बात सुझाऊँगा, उससे देशमें भिन्न-भिन्न दलों द्वारा की जानेवाली एक संयुक्त कार्यक्रम तैयार करनेकी कोशिशमें खलल पड़ सकता है। इस बीच, मैं अपरिवर्तनवादियोंका ध्यान केवल खादीके महान रचनात्मक कार्यक्रमकी ही ओर खींच सकता हूँ। जो लोग खादी-कार्यक्रमको अहमियत नहीं देते वे असहयोगके सबसे अधिक शक्तिशाली और सबसे अधिक क्रियाशील अंश यानी अहिंसाकी खूबियाँ नहीं समझते, उसे नहीं पहचानते। अहिंसा के बिना असहयोग कभी भी एक विश्वास और सिद्धान्त बनने योग्य गरिमा प्राप्त नहीं कर सकता; वह युद्धकी एक चाल भर बन कर रह जाता है। अहिंसापूर्ण असहयोगकी परिकल्पना तो एक ऐसी अमोघ औषधिके रूपमें की गई थी जिसके आगे फिर किसी अन्य औषधिकी जरूरत ही नहीं रह जाती, और इसके क्रियात्मक पक्षका आधारभूत अंग खादी है। इंग्लैंडके समाचारपत्र 'डेली डिस्पेच' में देखिए कि मि॰ हारकोर्ट रॉबर्टसन किस प्रकार अनिच्छापूर्वक खादीकी स्तुति करते हैं। सम्पादकका कहना है कि "लेखक बहुत सालतक ब्रिटिश भारतमें रह चुके हैं और व्यापारकी हालत और भारतीयोंकी मनोवृत्तिका उन्हें खूब गहरा ज्ञान है।" १२ तारीखके 'लीडर' से मैं नीचेका उद्धरण साभार दे रहा हूँ :[१]

उनके (श्री रॉबर्टसन के) मतानुसार भारतवर्षमें ब्रिटिश सूती मालकी खपतको कमीका कारण महासमरके बाद की गड़बड़ी नहीं है, आर्थिक कठिनाइयाँ भी नहीं हैं और न भारतीय जन-समुदायकी दरिद्रता ही है,. . . .और न अकाल हैं. . .बल्कि हिन्दुस्तानी और जापानी मिलोंकी प्रतियोगिता है
  1. यहाँ केवल कुछ अंश ही दिये गये हैं।