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३७२. पत्र : हेमप्रभादेवी दासगुप्तको

सत्याग्रह आश्रम
साबरमती
२० जनवरी, १९२८

प्रिय भगिनी

तुमारा खत आ गया है। निश्चित रहती है ऐसा जान कर मुझे बड़ा आनंद आता है। जिस ढंगसे आजकल श्राद्ध होता है उसपर मुझको श्रद्धा नहि है। अनील के श्राद्धके दिन केवल फलाहार करें, उसी निमित्त यज्ञ समझ कर ज्यादा कातें, और उत्तरकांडमें से 'रामायण' का पाठ करें और 'भगवद्गीता' के बारह अध्यायका अच्छी तरह मनन करें।

बापु

जी॰ एन॰ १६५३ की फोटो-नकलसे।

३७३. भाषण : काठियावाड़ राजनीतिक परिषद, पोरबन्दरमें[१]

२२ जनवरी, १९२८

राजा तथा प्रजाके बीच किसी तरहकी गलतफहमी पैदा न हो जाये तथा परिषदको भी अपनी शक्तिका पूरा मान बना रहे इस उद्देश्य से एवं कुछ समय से चली आ रही प्रथाको एक निश्चित रूप देनेके लिए यह परिषद निश्चय करती है कि परिषद किसी भी राज्यके सम्बन्धमें व्यक्तिगत तौरपर उसकी निन्दा या आलोचनात्मक कोई प्रस्ताव पास नहीं करेगी।[२]

गांधीजीने उक्त प्रस्तावका विवेचन करते हुए कहा :

आजका यह बन्धन युवकोंको पसन्द नहीं आयेगा, किन्तु स्वराज्य अर्थात् गलतियाँ करनेका जन्मसिद्ध अधिकार-जैसी सलाह देनेके पहले अपने उत्तरदायित्वके बारेमें मुझे विचार कर लेना चाहिए। मैंने अपने उत्तरदायित्वके बारेमें विचार कर लिया है और सोच-विचार कर ही सलाह दी है। मैंने न केवल इस प्रस्तावपर विचार किया है बल्कि इस प्रस्तावका मसविदा भी मैंने ही तैयार किया है। परसों विषय समितिमें

  1. यह चौथी परिषद थी।
  2. यह प्रस्ताव २६-१-१९२८ के यंग इंडिया में प्रकाशित "साप्ताहिक पत्र" से किया गया है। महादेव देसाई के अनुसार प्रस्ताव गांधीजीने तैयार किया था।