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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सुन्दर पेड़ है जिसकी छायामें बैठकर मनुष्य जाति अपने लिए छाया और पोषण पा सकती है। वर्ण-व्यवस्था संयमका धर्म है। इसमें रुपये-पैसेका खयाल नहीं, धर्मपर चलनेका ध्येय है। ऋषि-मुनियोंने इसकी कल्पना और रचना धर्मपर चलनेके राजमार्गके रूपमें की थी। इसके बजाय अब यह हमारे स्वार्थी, हमारे दोषों और हमारे भोगोंको बल पहुँचानेका जरिया बन गई है। अब शुद्ध वर्ण-व्यवस्था कायम करनेकी कोशिश कीजिये।

मेरी अपनी दृष्टिमें स्वराज्य और रामराज्य एक हैं; यों लोगोंसे बोलते हुए रामराज्य शब्दका उपयोग अधिक नहीं करता। इसका कारण यह है कि बुद्धिके इस युगमें स्त्रियोंसे चरखेकी बात करनेवालेका रामराज्यकी बात करना बुद्धिवादी युवकोंको एक निरर्थक बात लगेगी। वे तो रामराज्य नहीं, स्वराज्य चाहते हैं; और स्वराज्यकी भी विचित्र व्याख्या करते हैं; मेरी दृष्टिसे उसका कोई मूल्य नहीं है। किन्तु आज मैं महाराजा साहब और उनकी प्रजाके सामने खड़ा हूँ। महाराजा साहबने एक घंटेतक मेरे सामने अपने हृदयके उद्गार रखे। ऐसी अवस्थामें मेरी इच्छा भी उनके सामने अपने मनकी बात ही रखनेकी होती है। स्वराज्यकी कल्पना साधारण बात नहीं है। स्वराज्य तो रामराज्य है। यह रामराज्य किस तरह आयेगा, कब आयेगा। हम राज्यको रामराज्य तभी कह सकते हैं जब राजा और प्रजा दोनों सरल हों, जब राजा और प्रजा दोनोंका हृदय पवित्र हो, जब दोनों त्यागवृत्ति रखते हों, भोगोंका सुख उठाते हुए भी संकोच और संयम रखते हों, और जब दोनोंके बीच पिता और पुत्र जैसे सम्बन्ध हों। हम यह बात भूल गये, इसलिए "डिमॉक्रेसी" (प्रजातन्त्र) की बातें करते हैं। "आज 'डिमॉक्रेसी' का जमाना है," मुझे नहीं मालूम, इसका क्या अर्थ है किन्तु जहाँ प्रजाकी आवाज सुनी जाती है, जहाँ प्रजाके प्रेमको प्राधान्य मिलता है, कहा जा सकता है कि वहाँ "डिमॉक्रेसी" है। मेरी कल्पनाके रामराज्यमें सिरोंकी गिनती अथवा हाथोंकी गिनती से प्रजाके मतको नहीं मापा जा सकता। जहाँ इस तरह मत लिये जाते हों, उसे मैं प्रजाका मत नहीं मानता। 'पंच वोले, सो परमेश्वर'। पूछे जानेपर हाथ ऊँचे करनेवाले पंच नहीं होते। ऋषि-मुनियोंने तपस्या करके यह देखा कि जो व्यक्ति तपश्चर्या करते हों और प्रजाके कल्याणकी भावना रखते हों, उनका मत प्रजाका मत कहला सकता है। इसीका नाम सच्ची "डिमॉक्रेसी" है। यदि कोई मुझ जैसा आदमी व्याख्यान देकर आपका मत चुराकर ले जाये, तो उस मतसे प्रकट होनेवाली वस्तु "डिमॉक्रेसी" नहीं है। मेरी "डिमॉक्रेसी" तो 'रामायण' में लिखी पड़ी है। और मैंने जिस सीधे-सादे ढंगसे 'रामायण' को पढ़ा है, उसमें से जो भाव निकलता है, रामचन्द्र उसीके अनुसार राज्य करते थे। आजका राजा तो राज्य करनेको अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है और प्रजाका किसी प्रकारका अधिकार स्वीकार नहीं करता। किन्तु राजा लोग जिस रामके वंशज कहलाते हैं, क्या आप जानते हैं कि वह राम किस तरह बरतता था? आप कृष्णके भी वंशज कहलाते हैं। कृष्णने कैसा आचरण किया था? कृष्ण तो दासानुदास थे। राजसूय यज्ञके समय तो उन्होंने सभी अभ्यागतोंके पाँव धोये। अपनी प्रजाके पाँव धोये। यह बात सच है अथवा काल्पनिक, ऐसी कोई प्रथा उस समय थी या नहीं,