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काठियावाड़ राजनीतिक परिषद

हमने यह स्वीकार किया है कि राज्य टीकाके पात्र होनेपर भी काठियावाड़ या किसी अन्य राज्यकी सरहदमें रहकर उसकी या किसी दूसरे राज्यकी टीका करनेकी शक्ति अभी हममें नहीं है। इसी कारण और भविष्य में ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेनेकी आशासे ही हमने यह बन्धन अपनेपर लगाया है। परिषद में प्रस्ताव लानेके सिवाय, और परिषद में सीधे या प्रकारान्तरसे किसी राज्यकी व्यक्तिगत टीका करने के अलावा, उन राज्योंके प्रकट दोष दूर करनेके जो उपाय परिषदकी समितिके पास हों, उन उपायोंपर अमल करनेका उसे अधिकार है, यह उसका कर्त्तव्य है। जैसे कि परिषदकी बैठकके प्रसंग में विषय-निर्धारिणी समितिके सामने कोई भी सदस्य काठियावाड़ी राज्यके दोषोंका दर्शन सदस्योंको कराये और उनके बारेमें समितिकी सलाह मांगे। अंकुश तो इतना ही है कि उनके बारेमें परिषदके सामने वह प्रस्ताव नहीं ला सकेगा। कार्यवाहक उन राज्योंसे पत्र-व्यवहार कर सकता है, राजाओं और उनके अमलदारोंसे मिल सकता है और उन दोषोंको दूर करनेकी प्रार्थना कर सकता है, अथवा शिकायतें झूठी ठहरें तो उस बातको जाहिर कर सकता है। यानी मित्रके तौरपर समिति प्रत्येक राजाके पास उचित रास्तेसे जा सकेगी। यह भी सम्भव है कि मर्यादाका रहस्य जानने के बाद, वे राज्य अगर एकाएक स्वच्छन्द न हो गये हों, लोकमतकी बिलकुल उपेक्षा न करते हों तो समितिके ऐसे कामका स्वागत ही करेंगे और उसे अपनी ढाल भी बना सकते हैं। यहाँ इतना याद रखना चाहिए कि ऐसी खोज-बीन और जाँचका समिति कोई लाभ न उठाये। जो बातें वह जाने, उनकी सार्वजनिक तौरपर खुली चर्चा न करे, और अगर वह उन उन राज्योंके पास न पहुँच सके, अथवा पहुँचनेपर भी सन्तोष न हो तो भी मुँहपर ताला लगाकर सब सह ले और समझे कि रोगका निवारण समितिकी शक्तिके बाहर है।

इसे मर्यादाके भीतर हस्तक्षेप कहो या जाँच कहो, उसका परिणाम समितिकी सजगता या सावधानी, उद्यम और सौजन्यपर निर्भर करता है। अगर वह पहलेसे ही उन उन राज्योंके बारेमें अपनी राय बना बैठे, पूर्वग्रह से ग्रसित हो जाये तो वह कुछ नहीं कर सकेगी। राजाओंके हृदयको पिघलानेका आत्मविश्वास उसमें होना चाहिए। ऐसा आत्मविश्वास केवल राजा प्रजा दोनोंकी अनन्य सेवासे ही आता है। दोनोंकी सेवा, उन्हें खुश करने के लिए नहीं बल्कि उनके भले के लिए तटस्थ भावसे करनी पड़ती है। ऐसी सेवामें स्वप्न में भी समिति के सदस्योंका व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होना चाहिए। देशी राज्योंकी हस्तीपर हम हाथ नहीं डालना चाहते, केवल उनका सुधार करना चाहते हैं। यह मान्यता इस वस्तुके गर्भ में समाई हुई है कि यदि परिषद राज्यतन्त्रका ही नाश करना चाहे तो उसकी बैठकके लिए राज्योंमें कोई स्थान नहीं है।

अहिंसासे परिवर्तन साधा जा सकता है, नाश नहीं। उसके द्वारा प्रजातन्त्रको राज्यों में कायम किया जा सकता है पर राजाओंका या राज्योंका नाश नहीं; और राजा प्रजा दोनोंमें जो कुछ अच्छा हो, उसका सामंजस्य कराया जा सकता है। थोड़े में कहिए तो दोनोंके बीच धर्मका सम्बन्ध रहे, पशुबल का नहीं। आधुनिक प्रवृत्ति