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प्रश्नोत्तर

पर अब मेरी नम्र सम्मतिमें तो उन्हें परिषद्के सभ्यतापूर्ण तरीकोंकी कद्र कर उसका स्वागत करना चाहिए, उसे सन्तुष्ट करना चाहिए। अपने और अपनी प्रजाके बीच उसका उपयोग एक पुलके रूपमें करना चाहिए। मेरे पास जो सबूत हैं, उनके आधारपर मैं मानता हूँ कि ऐसी बात तो है ही नहीं कि काठियावाड़का कोई भी राज्य टीकाके योग्य नहीं है। सुननेमें आया है कि कितने ही राज्योंमें बहुत बड़े-बड़े दोष हैं। वे इस युगको पहचानें। यह एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है कि सारे जगतमें जो अव्यवस्था चल रही है उसका असर भारतवर्षपर भी होता जा रहा है। अव्यवस्थाके रूपमें तो वह अवश्य ही जहरीली है, मगर उसके मूलमें निर्मल हेतु है। जाने या अजाने, लोग खुद नीतिके रास्ते नहीं चलते, मगर तो भी वे नीतिके उपासक हैं। सत्ताके अन्धे बलसे वे थक गये हैं, अपना धैर्य खो बैठे हैं। और अधैर्यके कारण यह बात वे भले ही भूल जाते हों कि उनका उपचार तो रोगसे भी अधिक भयानक है। पर उन्हें सुधार चाहिए, नीतिपूर्ण सत्ता चाहिए; किन्तु मेरे-जैसे सत्य और अहिंसाके उपासक देख सकते हैं कि उनके अपनाये रास्ते से नीति नहीं ही मिलेगी। पर वे यह भी देख सकते हैं कि यदि सत्ताधिकारी चेते नहीं तो उनका नाश निकट है। राजाओंको चेतनेकी आवश्यकता है। विनाशकी सूचक विपरीत बुद्धि उन्हें कभी न आये। मैं तो इसी अविचल विश्वासके सहारे जीवित हूँ कि हिन्दुस्तानी विनाशके रास्ते कभी नहीं जायेगा। मेरे इस विश्वासको राजा लोग सच्चा साबित करें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २९-१-१९२८

३९३. प्रश्नोत्तर

इस साल काठियावाड़ राजनीतिक परिषद पोरबन्दरमें श्री अमृतलाल ठक्करकी अध्यक्षता में हुई थी। उसमें गांधीजीको भी जाना पड़ा था।

एक भाईने पूछा कि अमुक राज्यमें अन्त्यज-शाला खोली जा सकती है या नहीं? गांधीजी ने कहा :

मैंने बहुतोंके मुँहसे और बहुत जगह सुना है कि "अमुक" राज्य अपवित्र राज्य है और अगर यह बात सच्ची हो तो वहाँ किसी पवित्र कामके लिए कोई नहीं जा सकता। इसमें अपवाद केवल यही है कि इस राज्यकी अपवित्रता दूर करने के लिए वहाँ जाया जाये। हम ब्रिटिश राज्यमें रहते हैं और इस कारण उसे एक ख़ास तरहकी प्रतिष्ठा मिल जाती है, पर इस अनीतिमय शासन-प्रणालीमें रहकर उसे नष्ट किये बिना हमें छुटकारा नहीं मिल सकता। पर अन्य किसी भी पवित्र कामके लिए किसी भी भले आदमीका अपवित्र राज्यमें जाना अथवा रहना उस राज्यकी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिए जाने के समान है।

३५–३४