१९८. हमारी जड़ता
एक युवक लिखता है:
एक दूसरे पाठक लिखते हैं
ये दोनों पत्र मैंने साथ ले लिये हैं; क्योंकि दोनों स्थितियोंके मूलमें हमारी जड़ता छिपी हुई है। कितने ही लोग मानते हैं कि जो चल रहा है, वह ठीक ही है। उसके औचित्य-अनौचित्यके बारेमें विचार करनेकी हमें कोई जरूरत नहीं है और रूढ़ प्रथाके विषय में शंका उठाना पाप है। इस वृत्तिमें जब विषय-वृत्ति मिल जाये, तो फिर वह कुप्रथा अच्छी मानी जाने लगती है। ऐसी दयनीय स्थिति से निकलनेके लिए युवक वर्गमें बहुत शक्ति और शक्तिके साथ शुद्धिकी आवश्यकता होती है। वे अपनी तपश्चर्या, अपने सत्याग्रहसे लोकमत तैयार कर सकते हैं और विषयासक्त व्यक्तियोंको शर्मिन्दा कर सकते हैं। जैन-जैसी छोटी बिरादरीके लिए और भी छोटे बने रहने की कोई जरूरत नहीं है। जैन युवकोंको जैनेतर कन्याओंके साथ विवाह करनेका आग्रह करना चाहिए। जैन प्रायः वणिक-वर्गके ही हैं या वैश्य-वर्गके हैं। उन्हें अपना वर्ग बदलने की जरूरत नहीं। वैश्य-वर्गके करोड़ों आदमी भारतवर्ष में हैं और उनमें से योग्य वरको कन्या मिलने में देर नहीं लग सकती। ऐसे वरको एक कौड़ी भी न लेने-देने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। फिर उक्त नगरकी १५० विधवा बहनोंमें से, जो बाल-विधवाएँ हों, उनके साथ विवाह करनेके लिए जैन युवकोंको अपनी तत्परता दिखानी चाहिए। इतना ही नहीं, किन्तु ऐसी किसी विधवाके बजाय यथासम्भव कुँआरी कन्याको ढूंढ़नेका प्रयत्न न करना ही इष्ट है।
जैन और दूसरे साधुओं अथवा धर्म-गुरुओंसे फिलहाल बहुत आशा करना मैं बेकार मानता हूँ। उनके सामने भी पेटका विकट प्रश्न है अथवा उन्होंने उसे विकट प्रश्न बना डाला है। इसलिए लोकमतके विरुद्ध जाकर सुधार करनेकी सलाह वे एकाएक