मैंने आज तीसरी बार सभाके[१] सामने वे शर्तें रखीं, जिनके बारेमें मैंने उन्हें बताया कि सरकार उन्हें देनेपर तैयार है। मैंने उन्हें यह भी बताया कि यदि उच्च शिक्षा-प्राप्त भारतीयों तथा सोराबजीकी बहालीके लिए कोई व्यवस्था इनमें कर दी जाये तो ये ही शर्ते स्वीकार्य समझौते का रूप ले लेंगी। किन्तु सभा एशियाई अधिनियमको रद करने तथा प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमकी सामान्य धाराके अन्तर्गत उच्च-शिक्षा प्राप्त भारतीयोंको मान्यता देनेसे कम किसी भी बात को सुननेके लिए तैयार नहीं थी। मैं उन्हें अधिकसे-अधिक केवल इसीपर राजी कर सका कि वैधानिक अधिकार मंजूर कर लिया जाये तो शिक्षित भारतीयोंके खिलाफ बरते जानेवाले ऐसे प्रशासनिक भेदभावपर कोई आपत्ति नहीं होगी जिसके कारण केवल अत्यन्त उच्च शिक्षा-प्राप्त भारतीय ही प्रवेश कर सकें। सभामें अत्यधिक उत्साह था। केवल चंद प्रतिनिधियोंको शामिल रखनेके इरादेसे की गई सभा एक सार्वजनिक सभामें परिणत हो गई। इसमें दक्षिण अफ्रिकाके तीन अत्यन्त प्रसिद्ध भारतीय[२]शामिल हुए थे। वे, जैसा कि आपको मालूम है, नेटालते आये हैं। किन्तु वे युद्धसे पूर्व यहाँके अधिवासी थे और यहाँ उनका बहुत कारोबार फैला हुआ था। प्रिटोरियाके जिन प्रभावशाली भारतीयोंने अधिनियम स्वीकार कर लिया है उनमें से भी अधिकांश आये थे; उन्होंने भी सहानुभूति प्रकट की। अत्यधिक कठिनाइयोंके बाद मैं सबको निम्नलिखित बातोंपर एकमत होनेके लिए राजी कर सका हूँ---
चेतावनी" के "एशियाइयोंका निवेदन" कहा था (पृष्ठ ४६५)। इंडियन ओपिनियनने ट्रान्सवाल विधानसभामें जनरल स्मट्सके २१ अगस्तके भाषणकी जो रिपोर्ट प्रकाशित की थी, उसमें "अल्टिमेटम" शब्द नहीं आया है। लेकिन उन्होंने एक पत्रका उल्लेख किया, और बताया कि उसीके कारण समझौतेकी उनकी सारी आशापर पानी फिर गया। भाषणके संक्षिप्त पाठके लिए देखिए परिशिष्ट ९। इस शब्दका प्रयोग इंडियन ओपिनियनमें, ६ जुलाई, १९०८ को उपनिवेश-सचिवके नाम लिखे ईसप मियाँके पत्र ( देखिए पृष्ठ ३३४-३७ ) के शीर्षक के रूपमें, और बादमें २० अगस्तके इस पत्र का वर्णन करनेके लिए भी किया गया था।] इस पत्रको अन्तिम चुनौती क्यों माना गया, इसका एक कारण यह था कि पत्रमें जवाबके लिए निश्चित अवधि दे दी गई थी। [ न तो १४ अगस्तके उस पत्रमें ( पृष्ठ ४४५-४६ ) जिसे गांधीजी "अन्तिम चुनौती" बताते हैं, और न ही २० अगस्तके उस पत्र में जो इंडियन ओपिनियन में "अन्तिम चुनौती क्या है?" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था, जवाबके लिए कोई निश्चित अवधि दी गई है। क्या सत्याग्रहियोंने कोई और पत्र लिखा था, जिसका पता नहीं चला है?]...जिस दिन विधेयक विधान-मण्डल ( लेजिस्लेचर ) में पास होनेवाला था, अल्टिमेटमका समय उसी दिन समाप्त होनेको था। [ विधान सभामें एशियाई स्वेच्छ्या पंजीयन वैधीकरण विधेयक (एशियाटिक्स-वालंटरी रजिस्ट्रेशन वैलिडेशन बिल) का पहला वाचन १३ अगस्तको होनेवाला था। इंडियन ओपिनियनके अनुसार यह विधेयक बादमें स्थगित कर दिया गया, और आखिरकार विधान परिषदने एक नया विधेयक जिसमें एशियाइयोंको कुछ और भी रियायतें दी गई थीं, २२ अगस्तको पास किया ]। निश्चित अवधिकी समाप्तिके कोई दो घंटे बाद प्रमाण-पत्र जलानेका एक आम जलसा करनेके लिए सभा बुलाई गई । [ १६ और २३ अगस्त, १९०८ की दोनों आम सभाओं में पंजीयन प्रमाण-पत्र जलाये गये । ] हम लोग सभा-स्थानपर सवेरे ही पहुँच गये थे और हमने तार द्वारा सरकारसे जवाब प्राप्त करनेकी व्यवस्था भी कर ली थी। सभा जोहानिसबर्गके हमीदिया मस्जिदके प्रांगण में ( अगस्त १६, १९०८ को ) ४ बजे की गई।... एक स्वयंसेवक सरकारकी ओरसे एक तार लेकर पहुँचा जिसमें उसने... अपने रवेयेमें कोई परिवर्तन करनेमें असमर्थता जाहिर की थी।"