२५०. पत्र: नारणदास गांधीको
लन्दन,
सितम्बर ७, १९०९
तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। तुमने भी वहाँ बैठे भारतीय भाइयोंके कष्टोंमें भाग लेनेका विचार किया, इसे मैं पुण्यका काम मानता हूँ।[१] अपने साथियोंको भी मेरी ओरसे बधाई दे देना।
यह अच्छा किया कि पण्डित साहब[२] और शुक्ल साहबसे[३] चन्दा लिखा लिया।
मैं जानता हूँ कि भारतके बहुत-से पढ़े-लिखे लोग इस लड़ाईका रहस्य नहीं जानते। इससे प्रकट होता है कि आत्मबलका वह ज्ञान, जो हमारे पुराने पुरखोंको था, अब दब गया है। उसको फिर प्रकाशमें लानेके लिए धीरजकी आवश्यकता होगी। इसमें समय लगेगा। लेकिन यह आत्मबल ज्यों-ज्यों समझमें आता जायेगा त्यों-त्यों लोग अधिकाधिक इसका प्रयोग सीखते जायेंगे। मैं जिस आत्मबलकी बात लिखता हूँ वह मन्दिर आदि स्थानोंमें जाने-जैसे बाहरी उपचारोंमें बिलकुल नहीं है। कई बार यह बाहरी उपचार उस बलके विपरीत होता है। अगर 'इंडियन ओपिनियन' लगातार पढ़ा हो तो उसमें तुमने यह सब कुछ-कुछ देखा होगा। छगनभाई ज्यादा समझा सकेंगे। वहाँ रहकर भी तुम उस बलका प्रयोग कर सकते हो। सत्य और अभयको विकसित करना उसका पहला पाठ है।
जो पैसा इकट्ठा करो उसे तुम तीनों व्यक्तियोंके हस्ताक्षरसे 'इंडियन ओपिनियन' में भेज देना। इसके अलावा जिन लोगोंने पैसा दिया है उन लोगोंको हिसाब भेजना। मुख्य नामोंको 'इंडियन ओपिनियन' में प्रकाशित करनेकी सूचना भी छगनभाईकी मारफत भेजना। अगर पण्डित साहब और शुक्ल साहब स्वयं उस पैसेको सहानुभूतिसूचक पत्रके साथ भेजेंगे तो अधिक अच्छा होगा। तुम सबको जैसा ठीक लगे, वैसे यह सब काम कर लेना।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी॰ डब्ल्यू॰ ४८९५) से।
सौजन्य : नारणदास गांधी