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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१७३

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अनुपम मिश्र


मंगवाए हैं, उसका जाल बहुत ही बारीक होता है। वह मछली पकड़ने की कोई सीमा नहीं मानता है। पुराने मछुआरे बरसात के दिनों में मछली नहीं मारते थे। जाल का आकार भी बड़ा रखते थे ताकि छोटी मछलियां निकल जाएं। वे केवल बढ़त चाहते थे। अभी के जाल में सारी छोटी-बड़ी मछलियां फंस जाती हैं। उन्हें जो चाहिए होता है वह छांटकर अपने काम में ले आते हैं और बची मछलियों को कचरे की तरह समुद्र में प्रदूषण फैलाने के लिए फेंक देते हैं। यह बहुत बड़ी बर्बादी का कारण है। पहले के मछुआरे मछली ज़रूर मारते थे। परंतु उनके प्रजनन के दौर में वे पानी में जाल बिल्कुल नहीं डालते थे। मछली के साथ उनका जीवन का संबंध था। मछली को खाते थे, मारते थे, बेचते थे सब कुछ करते थे। मगर मछली के साथ उनका सांस्कृतिक संबंध था, मछुआरे उनके दुख-सुख के साथी होते थे। उदारीकरण के दौर में जहां भी बड़े ट्रालरों का उपयोग हो रहा है सबने बहुत नुकसान उठाया है। मछली के उत्पादन पर इसका बुरा असर पड़ा है।

हम स्थायी या टिकाऊ विकास की बात करते हैं, परंतु अभी तो हमारा विचार ही टिकाऊ नहीं है। हमसे राष्ट्रीयकरण की कोई बात करता है तो हम उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं। हमें उदारीकरण का झंडा ऊंचा दिखता है तो हम उसके पीछे दौड़ने लगते हैं। कोई हमें बड़े ट्रालरों से मछली पकड़ने को कहता है तो हम बड़े ट्रालर से मछली पकड़ने लगते हैं। हम यह नहीं जानना चाहते हैं कि जहां बड़े ट्रालर से मछली पकड़ी जा रही है, उनके क्या अध्ययन हैं? हमारे कुछ अच्छे अधिकारी वहां जाकर साल भर अध्ययन करें, मछुआरा समाज के विशेष प्रतिनिधि जाकर वहां देखें कि क्या ठीक है, वह करें। हमें जो कुछ भी कहा जाता है, हम बगैर जांच-परखे उसके पीछे दौड़ते हैं। बाज़ार में बिकने लायक़ जो भी पद्धति हमें दिखती है, हम उसका अनुसरण करने लगते

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