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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१९५

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अनुपम मिश्र


काम को अंग्रेज़ी में किया होता तो एक प्रसिद्ध वर्ग के बीच में ज़रूर यह घूम जाता लेकिन व्यापक हिस्सा उसको चूम नहीं पाता। आज इन किताबों को व्यापक हिस्से का भरपूर प्यार मिल सका है।

दोनों पुस्तकों पर काम ही इसलिए शुरू हुआ कि मन में बहुत संशय था कि हमारा समाज इन सब बातों को कैसे देखता था। पानी का काम तो अपने देश में मरुभूमि से लेकर दूर-दूर तक जहां तेज़ पानी गिरता है, सब जगह था। तो वो तालाब कौन बनाते थे? उनकी पढ़ाई-लिखाई कौन करता था? उनको शिक्षा कौन देता था? इनका ख़र्च वगैरह किस तरह से आता था, रख-रखाव कौन करता था। मन में इतने प्रश्न थे और इनके कोई हल नहीं थे हमारे सामने। किसी से भी उसके बारे में हमें जानकारी नहीं मिलती थी। इसीलिए काम शुरू हुआ इन दोनों किताबों पर। पहला संशय इन किताबों के लिखने से पहले का है। दूसरा भी एक दिशा बना रहा पुस्तक लिखते समय भी। आज जिसको हम बहुत हल्के ढंग से परंपरागत ज्ञान कहने लगे हैं, वह इतना बड़ा समुद्र है कि इसमें एकाध डुबकी लगाने से कुछ हाथ नहीं आता है। यह तो कण-कण में व्याप्त है। 7-8 साल की मेहनत के बाद भी कहीं भी जाकर हम लोग अटक जाते। कई बार लगा कि हमारे पास कुछ जानकारियां हैं लेकिन किताब का पूरा एक अध्याय लिखने लायक़ तो कुछ नहीं है। तो हम उसको वहीं छोड़कर एक बार उन इलाकों में फिर चले जाते थे। 'राजस्थान की रजत बूंदे' में जो भूजल वाला अध्याय है उससे पहले की किताब पूरी हो गई थी, टाइप में पड़ी थी लेकिन यह अध्याय लिखते नहीं बन रहा था। तो यहां पर किताब बंद करके जैसलमेर चले गए। मैं इस मौके पर उनका नाम लेना चाहूंगा। वहां जेठूसिंह भाटी से मिले और उनसे कहा कि भाई यह भूजल वाले मामले में तो हम अटक गए हैं, हमसे आगे नहीं बढ़ा जा रहा है। उन्होंने एक कहावत बताई-इंदर थारी एक घड़ी, भूण थारा

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