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पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/८५

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[ ८४] मानिन बार बसन उघार। संभु कोप टुआर आयो आद को तनु मार ॥ नागजापतिपितापुर को जाहु कहत न बेग । गेह हग औ रंग झष सुन रीत ताही नेग ॥ कहहु करहिसहाई सुरपति चढन ब्रज पर फेर। सूरउक्तौ वक्र कर कर रही नीचें हेर ॥८॥ उक्त सषी की है माननी संभु नाम हर कोप नाम रीस आदि वरण ते हरि भयो तेरे दरवाजे ठाढे सो तू वार पट केवार पोल तब नाइका हरी शब्द वक्रउक्त ते बानर कहत है कैकहु नागजा सुलोचना पति मेघनाद पिता रावण पुर को जाहु तब सपी कहत है कै गेह (ग्रह) कहे घर दृग नयन रंग स्याम झप मछरी ताहि रीत ते आदि वरन (लेहु तो) ते घनस्याम आये हैं तब नाइका कहै इंद्र की सहाइ करै वृज पर फेर चढो है या पद में वक्रोति अलंकार है लक्षण । दोहा-वक्र उक्ति स्लेष ते, अर्थ सु दीजै फेर ॥ १ ॥ ८९ ॥ सजनी तोकों सब समुझावै। जाको लाज तनक ना तन में मन में सो न सकावै॥ सुनं तीन पाछिल सुद ताको प्रथम आपनी छोडै। भूघर समर आदिती भोई सुनत करत तन पोडै॥ दानव प्रया सेर चालीसो सुरभी रस गुड