सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६९
भारतीय भाषायें और अंगरेज़


अफसोस होता है। इसके सिवा विद्या, विज्ञान और कला कौशल आदि विषयों पर जब मैं बातचीत करता हूं तब भी मुझे रंज होता है । मैं इस काम के लिए भी अपने को योग्य नहीं पाता ह । मुझे आशा है कि यदि मेरे पास अपने खयालात जाहिर करने के लिए काफ़ी शब्द हो तो मैं इन विषयों पर जो कुछ कहूं उसे यहां के लोग अच्छी तरह समझलें । पर क्या करूं, मेरे पास इनकी भाषा के उतने शब्द ही नहीं हैं। यह न समझना कि इन लोगों की भाषा में सब तरह के खयालात ज़ाहिर करने के लिए शब्द ही नहीं हैं । शब्द ज़रूर हैं, पर मैं उनको जानता ही नहीं और न मैंने आज तक किसी ऐसे योरप-निवासी को देखा जो उन सबको जानता हो । जिन लोगों की पैदायश यहीं की है उनके पास शब्द तो अक्सर मतलब के लिए काफ़ी होते हैं, पर उन बेचारों के पास ख़यालात की कमी रहती है। शब्द हैं तो ख़यालात नहीं, और ख्यालात हैं तो शब्द नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे देशवासी इस मुल्क में उन लोगों से अच्छी तरह नहीं मिलते जुलते, जिनके सामने इन सब विषयों पर, अज्ञानता ज़ाहिर करने में हमें शरम मालूम होनी चाहिए, बस यही भेद है। इसे सब लोग जानते हैं और मानते भी हैं।

इस देश के रहनेवाले जो हमारे कर्मचारी हे उनको असभ्य और ग्राम्य भाषा में हुक्म देते हमें शरम नहीं आती