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पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/१९५

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साहित्यालाप


जब कोई कहे---आज एक शख़्स पाया था---या यह कहे कि एक मनुष्य आया था, तो दोनों यकसां हैं। क्योंकर कहूं कि मनुष्य मुख़ालिफ-तबा है ? यह भी तो हो सकता है कि हम बचपन से शख्स़ सुनते हैं । इसलिए हमें मनुष्य यामानुस नामानूस (नापसन्द) मालूम होता है। इसी तरह और अलफ़ाज़ हैं जिनकी तादाद शुमार से बाहर हो गई है।

"इससे ज़्यादा तअज्जुब यह है कि बहुत से लफ्ज़ खद मतरूक हैं। मगर दूसरे लफ्ज़ से तरकीब पाकर ऐसे हो जाते हैं कि फ़सहा के मुहाविरे में जान डालते हैं। मसलन् यही मानुस अकेला मुहाविर में नहीं, मगर सब बोलते हैं कि अहमद जाहिर में तो भलामानुस मालूम होता है वातिन की खबर नहीं।

"बन्धु, भाषा में भाई या दोस्त को कहते हैं । अब मुहाविरे में भाई-बन्द कहते हैं । न फकत बन्धु न भाई-बन्धु । और इन इस्तेमालों की तरजीह के लिए दलील किसीके पास नहीं। जो कुछ जिस ज़माने में रवाज हो गया वही फसीह हो गया: एक ज़माना आयेगा कि हमारे मुहाविर को लोग बे-मुहाविरे कह कर हँसेंगे।"

उर्दू, संस्कृत और प्राकृत ही से पैदा हुई है। उसने कितने ही संस्कृत शब्दों को बिगाड़ बिगाड़ कर अपने में मिलाया है, इसपर "आज़ाद" लिखते हैं। उनकी किताब का इकतीसवाँ पृष्ठ देखिए---