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पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३१३

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साहित्यालाप


की ओर होरही है-कुछ इने गिने सजनों ने तो संस्कृत का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया है-तथापि, बड़े खेद की बात है, वे साधारणत: हमारी भाषा और हमारी लिपि का और पूर्ववत्ही उदासीन हैं। अधिकांश तो उसके प्रचार और उसकी उन्नति के मार्ग में विघ्न-बाधाये तक उपस्थित करने हैं, विरोध करना तो कुछ बात ही नहीं। परन्तु यदि वे अनुचित पक्षपात छोड़ कर, अपने जन-समुदाय और अपने देश के हानि-लाभ का विचार करेंगे तो उन्हें ज्ञात हो जायगा कि इस विषय में उनकी उदासीनता और उनका विरोधभाव हम दोनों हा के हित का विधातक है। वे अपनी लिपि और जिसे वे अपनी भाषा कहते है उसकी उन्नति खुशी से करें: पर साथ ही हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को भी यथाशक्ति सीखना उन्हें अपना कर्तव्य समझना चाहिए। सैकड़ों साल से लाग्यों हिन्दु उर्द ही नहीं, फ़ारसी तक पढ़ते और लिखते चले आ रहे हैं और अब भी पढ़ते लिखते हैं। इस दशा में क्या उनका भी यह कर्तव्य न होना चाहिए कि वे हमारी भाषा और हमारी लिपि सीखें ?यदि वे, अभाग्यवश, अपने इस कर्तव्य-पालन से पराङ्मुख रहने ही में अपना कल्याण समझे तो भी हमें उनकी लिपि का परित्याग न करना चाहिए। उससे घृणा तो कदापि करनी ही न चाहिए। उनकी उर्दू कोई जुदा भाषा नहीं। वह भी हिन्दी ही है। यदि कुछ अन्तर है तो केवल इतना ही कि उसमें अरबी, फ़ारसी के शब्दों का संमिष्टण कहीं कम और कहीं अधिक रहता है। बस, और कुछ नहीं।