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पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३१८

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वक्तव्य


को, भाई अपने भाई को, चचा अपने भतीजे को और मित्र अपनेही देशवासी, अपनेही प्रान्तवासी, अपनेही नगरवासी मित्र को अपनी मातृभाषा में पत्र न लिख कर, किसी विदेशी भाषा में पत्र लिखे। ऐसा अस्वाभाविक दृश्य, इस अभागे भारत को छोड़ कर, धरातल पर क्या किसी और भी देश में देखा जाता है ? क्या कभी कोई जापानी अन्य जापानी को अंगरेज़ी भाषा में अथवा क्या कभी कोई अंगरेज़ किसी अन्य अंगरेज़ को रूसी, तुर्की या फ्रांस की भाषा में पत्र लिखकर अपने विचार प्रकट करता है ? अनुन्नत होने पर भी क्या अपनी हिन्दी-भाषा इतनी दरिद्र है कि सब प्रकार के साधारण विचार प्रकट करने के लिए उसमें यथेष्ट शब्दसामग्रीही नहीं? यदि यह बात नहीं तो फिर क्यों हम हिन्दी, उर्दू या हिन्दुस्तानी बोलते समय, बीच बोच में, अंगरेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग करें और क्यों घरेलू पत्रव्यवहार में भी उसी भाषा का मुंह ताके ? आफ़रीका के असभ्य हबशियों तक के समस्त जावन-व्यापार जब उन्हींकी नितान्त समृद्धिहीन बोलियों और भाषाओं से चल सकते हैं तब क्या हमारी भाषा उनसे भी अधिक कङ्गालिनी है जो हम उससे काम नहीं लेते ? यह और कुछ नहीं। यह केवल हमारे अज्ञान, हमारे अविवेक, हमारी अदूरदर्शिता का विजृम्भण है। यदि हममें आत्मगौरव की, यदि हममें स्वदेश-प्रेम की, यदि हममें मातृभाषामणि की यथेष्ट मात्रा विद्यमान होती तो ऐसे अस्वाभाविक व्यापार से हम सदा दूर रहते। यदि हम चाहते हों कि हमारा कल्याण