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पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/२२२

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साहित्य का उद्देश्य


कुछ लोगों को एतराज है कि महात्माजी ने अपने भाषण मे शृङ्गार- रस का बहिष्कार कर दिया है और उसे निकृष्ट कहा है। यह भ्रम इसलिए हुआ है कि 'शृङ्गार' का प्राशय समझने मे भेद है। शृङ्गार अगर सौदर्य-बोध को दृढ करता है, हममे ऊँचे भावो को जाग्रत करता है तो उसका बहिष्कार कौन करेगा। महात्माजी ने बहिष्कार तो उस शृङ्गार साहित्य का किया है जो अश्लील है । एक दल साहित्यकारो का ऐसा भी है, जो साहित्य को श्लील-अश्लील के बन्धन से मुक्त समझता है। वह कालिदास और वाल्मीकि की रचनाओ से अश्लील शृङ्गार की नजीरें देकर अश्लीलता की सफाई देता है। अगर कालिदास या वाल्मीकि या और किसी नये या पुराने साहित्यकार ने अश्लील शृङ्गार रचा है, तो उसने सुरुचि और सौदर्य-भावना की हत्या की है। जो रचना हमे कुरुचि की ओर ले जाय, कामुकता को प्रोत्साहन दे, समाज मे गदगो फैलाये, वह त्याज्य है, चाहे किसी की भी हो । साहित्य का काम समाज और व्यक्ति को ऊँचा उठाना है, उसे नीचे गिराना नहीं। महात्माजी ने खुद इन शब्दो मे उसका व्याख्या की है।

'अाजकल शृङ्गार-युक्त अश्लील साहित्य को बाढ़ सब प्रान्तों मे आ रही है । कोई तो यहाँ तक कहते है कि एक शृङ्गार को छोड़कर और कोई रस है ही नहीं। शृङ्गार-रस को बढ़ाने के कारण ऐसे सज्जन दूसरो को 'त्यागी' कहकर उनकी उपेक्षा और उपहास करते है । जो सब चीजो का त्याग कर बैठते हैं, वे भी रस का नो त्याग नही कर पाते । किसी-न- किसी प्रकार के रस से हम सब भरे है। दादाभाई ने देश के लिए सब कुछ छोड़ा था, वे तो बडे रसिक थे । देश-सेवा ही उन्होंने अपना रस बना रक्खा था।'

हर एक समाज की ज़रूरते अलग-अलग हुआ करती हैं, उसी तरह जैसे हर एक मनुष्य को अलग-अलग भोजन की जरूरत होती है । एक बलवान् , स्वस्थ आदमी का भाजन अगर आप एक जीर्ण रोगी को खिला दे, तो वह संसार से प्रस्थान कर जायगा। उसी तरह एक रोगी