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पृष्ठ:साहित्य सीकर.djvu/१५

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वेद

है। वेद उनके पूर्वाभ्यस्त रहते हैं। इससे स्मरण करते ही उन्हें वे आप ही याद हो जाते हैं। सोकर जगने पर क्या पूर्वाभ्यस्त बातें किसी को भूल भी जाती हैं? फिर हिरण्यगर्भ को वेद कैसे भूल सकते हैं? इस तरह के शास्त्रार्थ से कितने ही प्राचीन ग्रन्थ भरे पड़े हैं।

इस समय आर्य्य-समाज में वैदित बातों पर बहुधा विचार हुआ करता है। इस समाज में कोई-कोई अनुयायी वेद का यथार्थ अर्थ जानने की चेष्टा भी करते हैं। "त्रिवेद निर्णय" नामक पुस्तक इसका प्रमाण है। वे भी वेदों को ईश्वरोक्त मानते हैं। परन्तु वेदों को विचारपूर्वक पढ़ने से यह बात नहीं पाई जाती। इसी से इस समय के अच्छे अच्छे विद्वान् वेदों के कर्तृत्व-विषय में वाद-विवाद नहीं करते। वे इसकी जरूरत ही नहीं समझते। वे जानते हैं वेद मनुष्य निर्मित हैं। परन्तु सर्वसाधारण ऐसा नहीं मानते। इससे जो कोई वेदों के ईश्वर प्रणीत होने में शंका करता है उसे वे घोर पापी और अधर्मी समझते हैं। इसे हम बखूबी जानते हैं। तिस पर भी जो हम सर्वसाधारण के विश्वास के विरुद्ध लिख रहे हैं उसका कारण—"सत्ये नास्ते भयं क्वचित्"।

वेदाध्ययन से नहीं, वेदपाठ ही से मालूम होता है कि वैदिक ऋषि ही वेद प्रणेता हैं। वैदिक सूक्तों ही में प्रणेता ऋषियों के नाम विद्यमान हैं। इन्हीं ऋषियों ने अनेक प्रकार के छन्दों में स्तोत्र आदि बनाकर देवताओं की स्तुति और प्रार्थना की है। यह सब उन्होंने अपने-अपने अभीष्ट-साधन के लिये किया था। लिखा भी—"अर्थ पश्यन्तु ऋषयो देवताश्छन्दोभिरभ्यधावन्"। जैसे पीछे के संस्कृत-कवियों ने गणेश, दुर्गा, शिव, विष्णु, सूर्य आदि की स्तुतियों से पूर्ण स्तोत्र बनाये हैं वैसे ही अग्नि, सोम, वरुण, सविता, इन्द्र आदि की स्तुतियों से परिपूर्ण स्तोत्र वैदिक ऋषियों के बनाये हुये हैं। यहाँ पर कोई यह कह