सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
उपन्यास।

अपने हाथ से पिता के मुख में प्रदान किया । हा! जो मुख अमृत बरसाता था, उसमें आज अपने हाथ आग लगाना पड़ा। अब चिन्ता करना वृथा है, पिता तो आवेंगे नहीं, और संस्कार अवश्य. करना चाहिए;' यह विचार कर बालिका ने चिता में भयानक अग्नि लगा दी।

अग्नि ने जब घह-घह शब्द करके मृत देह को भक्षण करना प्रारंभ किया तो न जाने किसने स्मशान में से कहा,-" अनल! तुम्हारी सवेदाहक क्षमता हम जानते हैं। क्षणभर अपनी चाल रोको । एक बेर हमें पिता का मृत कलेचर स्पर्श कर लेने दो।"

यह वाक्य किसने कहा ? उसी विचारे अनाथ बालक ने । पर अग्नि ने कुछ भी नहीं सुना, देखते देखते वृद्ध का पाञ्चभौतिक शरीर भस्म में परिणत हुआ। हवा जोर से बहती थी, किन्तु जिस ओर “अनाथिनी ” बैठी थी, ठीक उसके विपरीत दिशा में वायु की गति थी और बालिका की ओर भम्मराशि वा अग्नि का उत्ताप नहीं आता था, इससे बालिका ने विचारा कि, 'भस्म हुए पिता का अभी तक इतना स्नेह है ! हा वे पिता कहां हैं ?'

बालक अभी तक चुप था । अब न जाने क्या सोच समझ कर बोला.-"जीजी, अब चाया कहां गए ?"

बालिका बिचारी क्या उत्तर देती ? अन्त में सोचकर बोली" स्वर्ग में।"

बालक,-" कैसे स्वर्ग में जाना होता है ? क्या आदमी मरने ही से स्वर्ग जाता है ?"

बालिका,-" अच्छा काम करने से स्वर्ग मिलता है।"

बालक,-" क्यों जीजी! हमलोगों को इस जनशून्य जंगल में नहीं नहीं स्मशान में छोड़कर बाबा चले गए; यह क्या उन्होंने अच्छा किया ?"

बालिका,-" इसमें उनका दोष नहीं, बरन हमलोगों के भाग्य का है। "

बालक,-" जीजी! मार्ग में जो जो बातें बाबा ने कही थी. वे तो एक भी न हुईं ! अब हमलोग कहाँ जायंगे ? कौन आक्षय देगा?

पालिका,-"भाई ! दयामय जगदीश्वर को छोड़ और हमलोगों