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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१००

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प्रथमस्कन्ध-१ कोश वश करो कृपा दिन भान ॥३५॥ राग धनाश्री ॥ आछो गात अकारथ गारयो ।करी नप्रीति कमल लोचन सों जन्म जुवा ज्यों हारयो। निशि दिन विपय विलासनि विलसत फूटि गई तव चारयो । अब लाग्यो पछतान पाइ दुख दीन दईको मारयो॥ कामी कृषण कुचील कुदरशन कौन कृपा करि तरयो । ताते कहत दयालु देव मुनि काहे सूर विसारयो॥३६ ॥राग सारंग। माधव जू मन सब ही विधि पोच । अति उन्मत्त निरंकुश मैगल चिंता रहित अशोच ॥ महा अमूढ अज्ञानतिमिरमें मग्न होत सुख मानि । तेली केर वृपभ ज्यों भरम्यों भजत नसारंगपानि। गीध्यो ढीठ हेम तस्कर ज्यों अति आतुर मतिमंद । लुब्धौ आनि मीन आमिप ज्यों अवलोक्यो नहिं फंद ॥ ज्वाला प्रीति प्रगट सन्मुख हटि ज्यों पतंग तनु जारयो । विपय अशक्त अमित अप व्याकुल तव हम कछु न सँभारयो । ज्यों कपि शीत हुताशन गुंजा सिमटि होत लवलीन । त्यों शठ वृथा तजत नहिं कवहूं रहत विषय आधीन ॥ सेंवर फूल सुरंग शुक निरखत मुदित होत खग भूप। परशत चोंच तूल उपरत मुख परत दुःख के कूप ॥ और कहां लौं कहाँ एक मुख या मनके कृत काज । सूर पतित तुम पतित उधारन गहो विरद की लाज ॥ ३७ ॥ मेरो मन मतिहीन गुसाई । सव सुखनिधि पद कमल छाडि श्रम करत श्वान की नाई। फिरत वृथा भाजन अवलोकत सूने सदन अज्ञान । तिहिं लालच कवहूं कैसेहूं तृप्ति न पावत प्रान ॥ जहँ जहँ जात तहीं भय चासत असमलकुटि पद आन । कौर कौर कारण कुबुद्धि जड़ किते सहत अपमान ॥ तुम सर्वज्ञ सकल विधि पूरण अखिल भुवन निजनाथ । तिन्हें छांडि यह सूर महाशठ भ्रमत भ्रमनिके साथ ॥ ३८॥ राग गौरी ॥ करुणामय तेरी गति लखि न परै । धर्म अधर्म अधर्म धर्म करि अकरन करन करै ॥ जय अरु विजय कर्म कहा कीनो ब्रह्म शराप दिवायो। असुर योनि ता ऊपर दीनी धर्मउ छेद करायो । पिता वचन खंडे सो पापी सो प्रहाद हिं कीनो । निकसे खंभ वीच ते नरहरि ताहि अभयपद दीनोदान धर्म बहु कियो भानुसुत सो तुव विमुख कहायो । वेद विरुद्ध सकल पंडवसुत सो तुम्हरो मन भायो ॥ हशहिं करत विरोचन को सुत वेद विमल विधि कर्मा । सो छलि बांधि पताल पठायो कौन कृपानिधि धर्मा ॥ द्विज कुल पतित अजामिल विषयी गणिका नेह लगायो । सुत हित नाम लियो नारायण सो वैकुंठ पठायो । पतिव्रता जालंधर युवती सो पतिव्रत ते टारी । दुप्प पुश्चली अधम सुः गणिका सुवा पढावत तारी ॥ मुक्त हेतु योगी श्रम कीनो असुर विरोधहिं पावै । अविगत गति करुणामय तेरी सूर कहा कहि गावै ॥३९॥ राग सारंग ॥ अविगत गति जानी न परै । मन वच अगम अगाध अगोचर केहि विधि युधि संचरै।। अति प्रचंड पौरुप बल पाये केहरि भूख मरें। विन आशा विन उद्यम कीने अजगर उदर भरै ॥ रीते भरै भरे पुनि ढोरै चाहै फेरि भरे। कवहुँक तृण चूड़े पानी में कबहूं शिला तरै ॥ वागर ते सागर करि राखै चहुँ दिशि नीर भरै। पाहन बीच कमल विकसाही जलमें अगिनि जरै ॥ राजा रंक रंक ते राजा ले शिर छत्र धरै । सूर पतित तरिजाइ तनक में जो प्रभु नेकु ढरै॥४०॥ राग केदारा॥ अपनी भक्ति देहु भगवान। कोटि लालच जो दिखावहु नाहिन रुचि आन ॥ जरत ज्वाला गिरत गिरि ते सुकर काटत शीश। देखि साहस सकुच मानत राखि सकत न ईश॥ कामना करि कोपि कवहूं करत कर पशु पात॥ सिंह सावक जात गृह तजि इन्द्र अधिक डरात ॥ जा दिना ते जन्म पायों यह मेरी-राति । | विषय विप हठि खात नाही. टरत करत अनीति ॥ थके किंकर यूथ यमके टारे टरत न नेक ।।।