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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२८६

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दशमस्कन्ध-१० (१९३) उरको ॥ मलार ॥ मुरि मुरि चितपति नंदगली। डग न परत व्रजनाथ साथ विनु विरह व्यथा मचली ॥ वार वार मोहन मुख कारण आवत फिरि जुअली । चली पीठिदै दृष्टि फिरावति अंग अंग आनंद रली ॥ सूरदास प्रभु पास दुहायो श्रीवृपभानु लली ॥ ४॥ बिलाबल ॥ शिरदो हनी चली लै प्यारी । फिरि चितवत हरि हँसे निरखि मुख मोहन मोहनी डारी ॥ व्याकुल भई गई सखिअनलौं व्रजको गए कन्हाई । और अहिर सब कहां तुम्हारे हरिसों धेनु दुहाई । यह सुनिकै चकृत भई प्यारी धरणिपरी मुरझाई । सूरदास तब सखियन उर भरि लीनी कुवरि उठाई ॥५॥ क्योंहो कुँवरी गिरी मुरझाई।यह वाणी कहि सखियन आगे मोको कारे खाई॥चलीलवाइसुतावृपभा नुहि घरहीतन समुहाई।डारिदियो भरि दूध दोहनियां अवही नीकेआई। यह कारो सुत नंदमहरको सब हम फूंक लगाई । सूरसखिनमुख सुनि यह वाणी तब यह बात सुनाई॥६॥सारंगा मोहिलई नैननि की सैन । श्रवन सुनत सुधि बुधि विसरी सव होलुब्धी मोहनमुख वैन ।आवत हुते कुमार खरिकते तव अनुमान कियो सखि मैन । निरखत अंग अधिक रुचि उपजी नखशिख सुंदरताको ऐन ॥ मृदु मुसकान हँसै मन कोमनि तवते तिल नरहत चितचैन । सूरश्याम यह वचन सुनायो मरी धेनु कही दाहिदैन ॥७॥रागधनाश्री ॥ सखिअन मिलि राधा घर ल्याई । देखह महरि सुता अप नीको कहूं यहि कारे खाई । हम आगे आवति यह पाछे धरणि परी भहराई। शिरते गई दोहनी दरिकै आपु रही मुरझाई ॥ श्याम भुअंग डस्थो हम देखत ल्यावहु गुणी बुलाई । रोवतजननि कंठ लपटानी सूरश्याम गुनराई ॥ ८॥ सारंग ॥ प्रातगई नीके उठि घरते । मैं वरजी कहां जातिरी प्यारी तब खीझी रिस झरते ॥ शीतल अंग खेदसों वूडी सोच परयो मनउरते ॥ अतिहि हठीली कहो नमानति करति आपने वरते। और दशा भई क्षण भीतर वोली गुणी नगरते । सूरगारुडी गुणकरि थाके मंत्र नलागत थरते॥९॥ नटनारायणाचले सब गारुरी पछिताइ । नेकहू नहि मंत्र लागत समुझि काहु नजाइ ॥ वात वूझत संग सखियन कही हमहि बुझाइ ॥ कहा कहि राधा सुनायो तुम सबनिसों आइ॥ महाविपधर श्याम अहिवर देखि सवही धाइ । फूंक ज्वा ला हमहुँ लागी कुँचरि उरपरी खाइ ॥ गिरी धरनी मुरछि तवहीं लई तुरत उठाइ । सूर प्रभुको वे गिल्यावह बडो गारुरिराइ ।। १० ॥ आसावरी ॥ नंदसुवन गारूरी वोलावहु । कह्यो हमारो सुनत नकोऊ तुरत जाहु वन अब लै आवड ॥ ऐसे गुनी नहीं त्रिभुवन कहुँ हम जानत हैं नाके । आय जाय तो तुरत जिआवहि नेक छुवतही उठिहै जीके। देखौधौं यह बात हमारी एक हि मंत्र जिवावे । नंदमहरको सुत सूरजप्रभु जो कैसे करिझालो आवै ॥ ११॥ आसावरी ॥ डसीरी माई श्यामभुजंगमकारे । मोहन मुख मुसकानि मनहु विपजाते मरे सो मारे । फुरै न मंत्र यंत्र गइनाही चले गुणी गुणडारे । प्रेम प्रीति विप हिरदैलागी डारतहै तनुजारे ॥ निर्विप होत नहीं के सेहु करि बहुत गुणी पचिहारे। सूरझ्यामगारुडी विनाको सो शिर गाडूटार ॥ १२ ॥ धनाश्री ।। वेगि चलो पिय कुँवरकन्हाई । जाकारण तुम यह वनसेयो सो त्रिय मदनभुअंगम खाई ॥ नैनशिथिल शीतल नासापुट अंगतपति कछु सुधि न रहाई । सकसकात तनु भौजि पसीना रलटि पलटि तनतोरि जंभाई ॥ विनदेखि मूरतिको जित तित उठि दौरी जिनि जहां बताई । ताहि कछू उपचार न लागत करमीजै सहचरि पछिताई ॥ वारवार बूझतिहै ऐसे कमल नयनकी सुंदरताई । जोपै सूर जिवायो चाहत तो ताको नेक देहु देखाई ॥१३॥ नट ॥ सुनत तुम्हारी । वात मोहन चुइचलै दोऊ नैन । छुटिगई लोकलाज आतुरता रहि न सकति चितचैन। उरकाप्यो।