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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/६

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पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते है, लेकिन और लोग बुराइयों पर पछताते है, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पचीस वर्ष हो गए; लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने न दिया था। यौवनकाल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है उन्होंने नि.स्पृहभाव से अपना कर्तव्य-पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे। उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी स्त्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह भी चिन्ता में डूबी हुई थी। उसे स्वयं सन्देह हो रहा था कि वह जीवन भर की सच्चरित्रता बिलकुल व्यर्थ तो नही हो गई?

दारोगा कृष्णचन्द्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन मनुष्य थे। मातहतों के साथ वह भाई चारे का सा व्यवहार करते थे; किन्तु मातहतों की दृष्टि से उनके इस व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहां हमारा पेट नही भरता, हम इनकी भलमनसी को लेकर क्या करें—चाटे? हमें घुड़की,डाँट डपट,सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटिया चाँदी के थाल में परोसी जायँ तो भी पूरियां न हो जायेंगी।

दारोगा जी के अफसर भी उनसे प्राय: प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते तो उनका बडा आदर-सत्कार होता था, उनके अहलमद, मुहर्रिर और अरदली खूब दावत उड़ाते। अहलमद को नजराना मिलता, अरदली इनाम पाता और अफसरों को नित्य डालिया मिलती पर कृष्णचन्द्र के यहां यह आदर सत्कार कहां? वह न दावत करते