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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१८२

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सैनिकों के लिए ये सब दृश्य नवीन और अपूर्व थे। उसके गोइन्दे, अन्वेषक तथा रक्षक टोलियाँ चौगिर्द फैलकर चल रही थीं। इस भूमि में खुदरौ (बिना बोए) वीड पैदा होते हैं, जिन्हें खोद-खोद कर वहाँ के निवासी लोधी आनन्द से खा रहे थे। अमीर ने लोगों से पूछा तो उसने जाना, दुष्काल में हज़ारों गरीब जनों के प्राणों की रक्षा इसी से होती है। अर्धनग्न, कृष्णवर्ण लोधियों को उसने बड़े कौतूहल से देखा। जंगलों में सुअरों के झुण्ड, मोथे की जड़ अपनी थुथनी से खोद-खोद कर खा रहे थे। यह सब देखता और चारों ओर से चौकन्ना हुआ अमीर, झपाटेबन्द आगे बढ़ा जा रहा था। उसकी आशाएँ प्रतिक्षण बदलती जा रही थीं। राजपूत राजाओं ने यद्यपि गुजरात और गुजरात की राजधानी के रक्षण का कोई प्रयत्न नहीं किया था, परन्तु सोमनाथ के रक्षण के लिए उन्होंने अपनी पूरी सामर्थ्य लगा दी थी। अनेक छत्रधारी राजा, महाराजा, उमराव, राव, योद्धा, ठाकुर और मण्डलेश्वर अपनी- अपनी सामर्थ्य से सैन्य ले-लेकर आए थे। सोरठ के छोटे मोटे सरदार, जमींदार तथा आसपास के प्रजापाल, भूपाल और जागीरदार बड़े उत्साह से तलवार बाँधकर भगवान् सोमनाथ के लिए अपना रक्तदान करने आए थे। सहस्रों कुल-वधुओं, गुर्जरबालाओं ने अपने स्वर्ण-रत्न-आभरण उतार कर इस धर्म-युद्ध में सहायता भेजी थी, और अपने पति-पुत्रों को उत्साहित करके युद्ध-क्षेत्र में भेजा था। नंग धडंग, भीमकाय, उघाड़े पैर भटकने वाले कोली ठाकुर गंडासे लेकर आए थे। गुजरात के वनों, उपत्यकाओं और ग्रामों में रहने वाले भील, मोटे-मोटे चांदी के कड़ों से सुशोभित हाथों में तीर-कमान लेकर आए थे। सोरठ, गुजरात के पहाड़ी इलाकों के कद्दावर और निर्भय काठी भी उपस्थित हुए थे। इस प्रकार अपनी ही अन्तःप्रेरणा से गुजरात के एक लाख तरुण अपने-अपने शस्त्र भगवान् सोमनाथ के लिए रक्तदान देने, अपने-अपने दल बनाकर आए थे। यह एक महत्त्वपूर्ण बात थी कि ये हिन्दू अपने राजनैतिक जीवन में तो असम्बद्ध थे, किन्तु धार्मिक और सामाजिक जीवन में सम्बद्ध थे। इसी से जिस मुस्लिम शक्ति ने इतनी सरलता से हिंदुओं की राजशक्ति को धूल में मिला दिया, जिसके छूते ही हिन्दू राज्य बिखरते चले गए, उसका समूचा बल भी हिन्दू धर्म को ध्वस्त न कर सका।जब-जब मुसलमानों ने हिन्दुओं की धर्म-भावना और सामाजिक जीवन पर बलात् प्रभाव डालना चाहा, तब-तब उन्हें अजेय सामर्थ्य से टक्कर लेनी पड़ी और इसी का यह परिणाम हुआ कि मुसलमानों से सब प्रकार का असहयोग हिन्दुओं में एक धार्मिक रूप धारण कर गया। राजस्थान, सोरठ, गुजरात और आसपास के राजा-महाराजा, छत्रधारी महीपति, ठाकुर, मण्डलेश्वर जो अपनी-अपनी सैन्य लेकर इस धर्मशत्रु से लोहा लेने धर्मक्षेत्र प्रभास में आ-आकर एकत्र हो रहे थे,उनके हाथियों,घोड़ों और सैनिकों की धमाचौकड़ी, शोर-गुल तथा शस्त्रों की झनझनाहट से प्रभास धर्मक्षेत्र मुखरित हो उठा। भीड़-भाड़ और धूम-धाम इतनी बढ़ गई कि निवास और भोजन की नगर में अव्यवस्था हो गई। देलवाड़े का मार्ग आने वाले सैनिकों तथा रसद के भरे हुए सैकड़ों छकड़ों से पटा पड़ा था। जितना अधिक रसद, खाद्य सामग्री और शस्त्रास्त्र जुटाए जा सकते थे,जुटाने का प्रत्येक सम्भव उद्योग किया जा रहा था।युवराज भीमदेव ने अनहिल्लपट्टन खाली कराते समय यह व्यवस्था की थी कि लोग अपना मालमता लेकर तो सुरक्षित स्थानों में चले जाएँ, किन्तु अस्त्र-शस्त्र सब राजधानी ही में छोड़ जाएँ। वह सब अन्न-भण्डार और शस्त्रास्त्र ,