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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२२६

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66 CG "तुम्हारा नाम क्या है?" "फतह मुहम्मद।" “यह तो नया नाम है, पुराना नाम क्या था?" "उस नाम से अब क्या?" "फिर भी, मैं जानना चाहता हूँ।" "देवा, देवस्वामी।” कहकर युवक उदास हो गया। "तुमने कृष्णस्वामी के पास बहुत-कुछ पढ़ा-लिखा है।" 'जी हाँ, लेकिन उनके पास नहीं, पीर के पास।" “तुम तो संस्कृत भी जानते हो, फिर म्लेच्छ भाषा क्यों बोलते हो?" “पर शूद्र हूँ, दासी-पुत्र हूँ, संस्कृत पढ़ना मुझे निषिद्ध है, इसकी सज़ा मौत है, मैं म्लेच्छ भाषा नहीं, शाही ज़बान बोलता हूँ, जो मेरे पीर ने मुझे सिखाई है।" "लेकिन मैं तुम्हें यदि तुम्हारे पुराने नाम से पुकारूँ?" “बेकार है।" "उस नाम से भी तुम्हें नफरत है?" "उसकी याद से भी।" "तुमने सिर्फ शोभना के लिए ही धर्म त्यागा न?" “जी नहीं, मैंने धर्म कबूल किया।" "मेरा मतलब हिन्दू धर्म से है।" “वह धर्म नहीं, कुफ्र है, धर्म तो सिर्फ इस्लाम है।" “इस्लाम में तुम्हें कुछ मिला?" “जी हाँ–समानता, उदारता, जीवन, आशा, आनन्द और दौलत।" “और शोभना?" “वह भी।" "लेकिन वह तो अब मेरे कब्जे में है, यदि मैं तुम्हें न दूं?" "तो मैं आपसे लडूंगा।" “मेरा हुक्म नहीं मानोगे?" "नहीं जनाब।" “अमीर का जो हुक्म है।" “वह सुलतान के काम के लिए है, यह मेरा काम है। शोभना के लिए तो मैं सुलतान नामदार से भी लडूंगा।” “क्या तुम्हारी ऐसी हैसियत है?" "हैसियत का सवाल नहीं है, जनाब! तबियत का सवाल है।" "क्या मतलब?" “एक तरफ शोभना और एक तरफ सारी दुनिया, यही मतलब!” "तुम्हारी बातों से मुझे तुम पर प्यार हो गया, यदि मैं तुम्हें शोभना दे दूँ, और वह तलवार भी, जिसकी कीमत तुम्हें मालूम है, तो क्या तुम फिर देवस्वामी बन सकते हो?" "नहीं हज़रत, मैं मुर्दे का मांस नहीं खाता।" 60