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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/४१२

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- धनी, योद्धा और म्लेच्छों से न डरने वाला था।55 भीमदेव के तीन रानियों का होना पाया जाता है। जिनमें दो के नाम उदयमती और बकलादेवी मालूम हुए हैं।56 प्रबन्धचिन्तामणि में बकलादेवी के स्थान पर चौलादेवी पाठ मिलता है। मेरुतुङ्ग बकलादेवी (चौलादेवी) को पथभ्रष्टा वेश्या बताता है, परन्तु किसी भी ग्रन्थ और शिलालेख से इसकी पुष्टि नहीं होती। भीमदेव के तीन पुत्र बतलाए गए हैं : मूलराज, क्षेमराज और कर्ण । क्षेमराज बकुलादेवी (चौला) से,और कर्ण उदयमती से हुए। मूलराज किस रानी से हुआ, इसका निर्णय नहीं हुआ। भीमदेव के ज्येष्ठ पुत्र मूलराज के विषय में मेरुतुङ्ग लिखता है कि एक वर्ष गुजरात में वृष्टि नहीं हुई, जिसके कारण कृषक लोग राज्य का महसूल जमा नहीं कर सके, जिससे वे श्रीपत्तन लाए गए। मूलराज ने घोड़ा फिराने की चतुराई से राजा को प्रसन्न कर वह कर माफ करा दिया। जिसके तीन दिन बाद ही मूलराज का देहान्त हो गया। दूसरे वर्ष अच्छी वृष्टि होने पर कृषकों ने दोनों वर्षों का कर चुका दिया। उस धन से मूलराज का स्मारक- स्वरूप त्रिपुर-प्रासाद नामक मन्दिर बनाया गया।57 कुमारपाल-चरित के अनुसार भीमदेव के दो पुत्र थे, जिसमें बड़ा क्षेमराज और छोटा कर्ण था। क्षेमराज ने कर्ण को राजसिंहासन पर बैठाया क्योंकि उसके पिता ने उसकी माता को ऐसा वचन दिया था। क्षेमराज के पुत्र देव प्रसाद को कर्ण ने दधिस्थली गांव दिया। इस घटना का समर्थन चरित्र सुन्दर गणी ने भी किया है। और जयसिंह सूरि रचित कुमारपाल-चरित से भी यही प्रमाणित होता है। भीमदेव ने विक्रम सम्वत् 1078 से 1110 तक राज्य किया। देहांत के समय उसकी आयु लगभग 60 वर्ष थी।58 प्रबन्धचिन्तामणि में विक्रम सम्वत् 1077 ज्येष्ठ सुदी द्वादशी को भीमदेव का राज्याभिषेक तथा विक्रम सम्वत् 1120 चैत्र बदी सप्तमी तक राज्य करना लिखा है। परन्तु उसी लेखक ने पीछे से अपनी विचारश्रेणी में विक्रम सम्वत् 1078 से 1120 तक राज्य करना माना है, जो अधिक प्रमाणित है। भीमदेव के दो ताम्रपत्र मिले हैं, जिनमें पहला विक्रम सम्वत् 1086, कार्तिक सुदी 15 का है। इसमें कच्छ का मसूर गाँव आचार्य मङ्गलशिव के पुत्र भट्टारक अजयपाल को देने का उल्लेख है। दूसरा ताम्रपत्र विक्रम सम्वत् 1093 का है, जिसमें वत्स गोत्र के ब्राह्मण दामोदर के पुत्र गोविंद को कच्छ देश में सहसचापा गाँव में एक हलवाह भूमि देना लिखा है।60 एक हलवाह में आधुनिक 10 बीघे के लगभग जमीन मानी जाती थी। नियम यह था, कि एक दिन में एक हल से जितनी भूमि उसे एक हलवाह कहा गया है। दोनों दानपत्रों का दूतक सन्धिवैग्रहिक श्री चण्ड शर्मा और लेखक कांचन का पुत्र बटेश्वर बताया गया है। दूतक उस पुरुष को कहते थे 61 जिसके पास दानपत्र की सनद या दान करने की राजाज्ञा पहुंचती थी।61 विमलशाह विमलशाह के सम्बन्ध में किसी विद्वान् का कोई लेख नहीं मिलता है। परन्तु आबू वाले विमलशाह के मन्दिर के जीर्णोद्धार के एक शिलालेख से हमें इतना ही पता चलता है कि प्रागवाट् (पौरवाड़) जाति का महाजन, दृढ़ व जैन धर्मावलम्बी और वीर प्रकृति का योद्धा था। उसके आबू के मन्दिर को देखकर यह कहा जा सकता है - कि उसके पास अपरिमित धन-समृद्धि थी। आबू का यह भव्य मन्दिर निर्माण करने में उसने 18 करोड़ जोती जाए,