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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/४१५

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कहना ही पड़ेगा कि महमूद के दुस्साहस में उसकी प्रजा का पूरा-पूरा हाथ था। महमूद बादशाह था, फिर भी प्रजा का सेवक था। यह ज़माना वोटोक्रेसी अथवा मिलिटरी डिक्टेटरशिप का था। परन्तु राज्य का कारोबार डेमोक्रेसी पद्धति पर चलता था। आज डेमोक्रेसी का युग है, पर कार बार सब डिक्टेटरशिप की रीति पर चलते हैं। स्टालिन की सोवियत सरकार तो यह कहती रही कि जन स्वातन्त्र्य के लिए ही यह डिक्टेटरशिप है। महमूद का यह युग गज़नी की जाहोजलाली, राजा और प्रजा के प्रेम, मुसलमानों की साहसप्रियता, भारतीय क्षत्रियों के अनैक्य तथा विजित प्रजा के साथ महमूद की उदारता और मूर्ति-पूजा का विकृत रूप प्रकट करता है। ऐतिहासिक आधारों पर नीचे लिखी बातें प्रमाणित हैं- 1. ईस्वी सन् 1025 में महमूद ने आक्रमण किया। 2. क्षत्रिय राजाओं के भय से उसे मरुस्थली की राह से आना पड़ा। 3. रास्ते में गुजरेश्वर भीम के भय से उसे कच्छ के महारन से वापस जाना पड़ा। 4. उसने सोमनाथ का मन्दिर तोड़ा। 5. वह आया और चला गया। किन्तु गुजरात का राजकीय, सामाजिक और धार्मिक जीवन अभंग ही रहा। इस आक्रमण को इतना तुच्छ समझा गया कि हेमचन्द्र, सोमेश्वर और मेरुतुंग-जैसे इतिहासकारों ने उसकी कहीं चर्चा तक नहीं की। 6. गुजरात की सत्ता और समृद्धि में कुछ भी कमी न आई, क्योंकि उसके सात ही वर्ष बाद 1032 में मन्त्रीश्वर विमलदेवशाह ने आबू पर आदिनाथ का मन्दिर बनवाया, जिसमें अठारह करोड़ रुपए खर्च हुए। सोमनाथ पर महमूद का यह आक्रमण नैपोलियन के मास्को पर किए गए आक्रमण बहुत समानता रखता है। दोनों आक्रमणकारी महत्त्वाकांक्षी थे और दोनों ही परराज्य में ज़बरदस्ती घुसे। नैपोलियन प्रकृति के द्वारा अवरुद्ध होकर पीछे फिरा, किन्तु महमूद को शत्रुओं से भय खाकर प्रकृति का भोग होना पड़ा। यद्यपि महमूद के इस आक्रमण का उल्लेख गुजरात के किसी भी इतिहासकार ने नहीं किया, परन्तु कुछ शिलालेख ऐसे मिलते हैं जिनमें महमूद के इस आक्रमण का उल्लेख है।67 सोमनाथ के विनाश और जीर्णोद्धर का विवरण श्री अमृतलाल पाण्ड्या ने इस प्रकार दिया है- विनाश:- महमूद गज़नवी ईस्वी सन् 1024 अलफ खान, ईस्वी 1297 अहमदशाह, 1314 शम्सखान, 1318 मुजफ्फरखान दूसरा, 1394 तातारखान, 1520 औरंगजेब मारफत, 1706 जीर्णोर्धार:-