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पृष्ठ:स्टालिन.djvu/७७

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वह उन्हें स्वीडनले गया। इससे आगे रूस पहुँचना बहुत मुश्किल न था। फिनलैण्ड उस समय में रूसी-प्रदेश था और वह पुराने गुप्त मार्ग जिनसे होकर क्रान्तिकारी श्रेणि के लोग प्रायः रूस माते जाते थे, उसी समय से उनको ज्ञात ये सब रूस में भार का शासन था। अब प्रश्न यह था कि मुख्य स्थान में पहुँचने पर उन लोगों के साथ कैसा बर्ताव किया जावेगा? स्वयं लेनिन भी यह न जानता था कि कैरनस्की उनके साथ किस तरह पेश आ- वेगा। बहुत संभव था कि उनके स्वागत में वह रेल के स्टेशनों को बन्दनवारों से सुसज्जित करा दे। हां, यह भी संभव था कि वह स्टेशन के द्वार पर मशीनगने लगषा दे, जिससे उन लोगों को उतरते ही गिरफ्तार करके साइबेरिया भेज दिया जावे । किन्तु पहली बात ठीक उतरी। जिस समय लेनिन सेंट पीटर्स वर्ग के स्टेशन पर जाकर उतरा, उसने देखा कि इमारतें खूब सजाई हुई हैं और अगणित दर्शक खड़े हैं। उन सबके आगे श्रेणि-नायक स्टालिन अपने राज-नैतिक गुरु लेनिन का स्वागत करने को उपस्थित था। अगले दिन जब परावडा पत्र प्रकाशित हुआ तो उसका अप्रलेख लेनिन की कलम से लिखा गया था। अन्य बातों के साथ उसमें यह शब्द अंकित थे- "कैरनस्की युद्ध जारी रख कर रूसी मजदूरों और कृषकों को मृत्यु-मुख में भेजना चाहता है।..."हमारी इच्छा है कि देश के भीतर एक भारी परिवर्तन हो। ऐसा परिवर्तन, जो हमारी इच्छा के अनुकूल हो। वास्तव में सीमान्त के लोग हमारे शत्रु नही हैं। हमारे शत्रु देश के भीतर ही मौजूद हैं। हमें यदि युद्ध जारी रखना है तो वह इन्हीं शत्रुषों के विरुद्ध होना चाहिये, जो देश के अंदर मौजूद हैं।" अब मन्य श्रेणि और इन लोगों में