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पृष्ठ:स्वदेश.pdf/३२

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नया और पुराना।

इस सम्बन्ध में दो बातें कहने की हैं। एक तो यह कि यद्यपि हम सभी लोग विशेष रूप से पवित्रता की चर्चा करनेवाले या पवित्र रहने-वाले नहीं हैं, तथापि अधिकांश मनुष्यजाति को अपवित्र समझकर एक सर्वथा अन्याय विचार, अभूलक अहंकार, और आपस में अनर्थक अन्तर या विरोध उत्पन्न करने का उद्योग किया जाता है। इस बात को बहुत लोग स्वीकार ही नहीं करते कि यह पवित्रता की दुहाई देकर हम जो विजातीय मनुष्यों से घृणा करते हैं सो वह घृणा हमारे चरित्र के भीतर धुनका काम कर रही है। वे बेधड़क कह उठते हैं कि हम लोग धृणा कहाँ करते हैं? हमारे शास्त्रों में ही लिखा है––"वसुधैव कुटुम्बकम्।" किन्तु यहाँ पर यह विचारणीय नहीं है कि शास्त्रों में क्या लिखा है और बुद्धिमान् लोग व्याख्या करके उसका क्या अर्थ ठहराते हैं। विचार केवल यह करना है कि हमारे आचरण या बर्ताव से क्या प्रकट होता है; और उस आचरण का आदिकारण चाहे जो हो किन्तु उससे सर्वसाधारण के हृदय में सहज ही मनुष्य-धृणा उत्पन्न होती है कि नहीं; तथा एक जाति के छोटे से लेकर बड़े तक सब आदमियों को किसी दूसरी जाति मात्र पर बिना विचारे घृणा करने का अधिकार है या नहीं।

दूसरी बात यह है कि जड़ पदार्थ ही बाहरी मलिनता से दूषित होते हैं। हम जब घराऊ पोशाक पहनकर घूमने निकलते हैं तब बहुत संभलकर चलना होता है। तब बहुत सावधानी से सँभलकर बैठना होता है जिसमें कहीं धूल न लग जाय, पानी की छीटें न पड़ जायें, कहीं किसी तरह का दाग न लग जाय। पवित्रता अगर ऐसी ही पोशाक हो तो अवश्य ही यों डरना ठीक है कि इन लोगों की छूत से कहीं वह काली न हो जाय, उन लोगों की हवा लगने से कहीं उसमें धब्बा न