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व्याख्यानदाताओं के विलायती ढँग के ताली पीटने के ताल पर हर एक सभा में नाचता नहीं फिरता, वह हमारे नदीतट पर कड़ी धूप से भरे भारी सुनसान मैदान में केवल कोपीन पहने कुशासन पर अकेला चुपचाप बैठा है। वह प्रबल भयानक है, वह दारुण सहन शील है, वह उपवास व्रत धारण किये हुए है। उसके दुर्बल हड्डियों के ढाँचे में प्राचीन तपोवन की अमृत, अशोक, अभय होम की अग्नि अब भी जल रही है। यदि कभी आँधी आवेगी तो आजकल का यह बड़ा आडम्बर, डींग, तालियाँ पीटना और झूठी बातें बनाना––जो कि हमारा अपना ही रचा हुआ है, जिसे हम भारत वर्ष भर में एकमात्र सत्य और महान् समझते हैं, किन्तु यथार्थ में जो मुँहजोर चञ्चल और उमड़े हुए पश्चिम-सागर की उगली हुई फेनकी राशि है––इधर उधर उड़ जायगा; दिखलाई भी न पड़ेगा। तब हम देखेंगे कि इसी अचल शक्तिधारी सन्यासी (भारतवर्ष) की तेज से भरी आँखें उस दुर्दिन में चमक रही हैं; इसकी भूरी जटायें उस आँधी में फहरा रही हैं। जब आँधी के हाहाकार में अत्यन्त शुद्ध उच्चारणवाली अंगरेजी की वक्तृतायें सुनाई न पड़ेंगी, उस समय इस सन्यासी के वज्र कठिन दाहिने हाथ के लोहे के कड़े के साथ बजते हुए चिमटे की झनकार आँधी के शब्द के ऊपर सुनाई पड़ेगी। तब हम इस संग-हीन एकान्तवासी भारतवर्ष को जाने और मानेंगे। तब जो निस्तब्ध है उसकी उपेक्षा नहीं करेंगे; जो मौन है उस पर अविश्वास नहीं करेंगे जो विदेश की बहुत सी विलास-सामग्री को समझकर उसकी ओर नजर नहीं करता उसको दरिद्र समझकर उसका अनादर नहीं करेंगे। हम हाथ जोडकर उसके आगे बैठेंगे और चुपचाप उसके चरणों की रज शिर पर धारण कर स्थिर भाव से घर आकर विचार करेंगे।