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पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/१०१

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परम पुरान सिरीखंड तरु कोटर में

मारत स्वकुंडली सिकुरि घबराय के॥
जिन कुहरनि गदगद नदति, गोदावरि की धार ।
शिखर श्याम घन सजल सों, ते दक्खिनी पहार ।।
करत कुलाहल दूरि सों, चंचल उठत उतंग ।
एक दूसरी सों जहाँ, खाइ चपेट तरंग।।
अति अगाध विलसत सलिल, छटा अटल अभिराम ।
पावन परम, ते सरि संगम धाम ॥

-- उत्तररामचरित
 

कितनी ही जंगली जातियाँ वृक्षों को देवता मानकर पूजती हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि जब हम अकेले अरण्यों में जाते हैं तब यदि कोई एक वृक्ष हमसे वार्ता- लाप करने लगे तो हमें उसका कुतूहल होगा और आनंद भी होगा। दिन के समय किसी घोरतर अरण्य में जाने से एक तरह का भय भो मालूम होता है।

जहाँ तरुपल्लवश्री का साम्राज्य है वहाँ पानी का स्थल अवश्य ही निकट होता है। नदी, सरोवर, निर्भर इत्यादि जहाँ होते हैं वहाँ की वनज सुंदरता अत्यत गंभीर होती है। मेघमंडल में घन उमड़कर नीलाकाश की शोभा बढ़ाते हैं। प्रात:- काल के अंधकारमय कुहरे में सरोवर और नदियों का निर्मल जल स्फटिक के समान चमकीला दिखाई पड़ता है। पानी उद्भिद् जगत् का जीवन है। पानी के आधार पर बड़े बड़े