सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/१३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२७ )


मनुष्य के प्रत्यक्ष ज्ञान में देश और काल की परिमिति अत्यंत संकुचित होती है। मनुष्य जिस वस्तु को जिस समय और जिस स्थान पर देखता है उसकी उसी समय और उसी स्थान की अवस्था का अनुभव उसे होता है। पर स्मृति अनु- मान वा उपलब्ध ज्ञान के सहारे मनुष्य का ज्ञान इस परिमिति को लाँघता हुआ अपना देश और काल-संबंधो विस्तार बढ़ाता अस्थित विषय के संबंध में उपयुक्त भाव प्राप्त करने के लिये यह विस्तार कभी कभी आवश्यक होता है। मनोवेगों की उपयुक्तता कभी कभी इस विस्तार पर निर्भर रहती है। किसी मार खाते हुए अपराधो के विलाप पर हमें दया आती है पर जब सुनते हैं कि कई स्थानों पर कई बार वह बड़े बड़े अप- राध कर चुका है, इससे आगे भी ऐसे हो अत्याचार करेगा तब हमें अपनी दया की अनुपयुक्तता मालूम हो जाती है कहा जा चुका है कि स्मृति और अनुमान प्रादि केवल मनोवेगों के सहायक हैं अर्थात् प्रकारांतर से वे मनोवेगों के लिये विषय उपस्थित करते हैं। ये कभी तो आप से आप विषयों को मन के सामने लाते हैं; कभी किसी विषय के सामने आने पर ये उससे संबंध ( पूर्वापर वा कार्य कारण-संबंध ) रखनेवाले और बहुत से विषय उपस्थित करते हैं जो कभी तो सबके सब एक ही मनोवेग के विषय होते हैं और उस प्रत्यक्ष विषय से उत्पन्न मनोवेग को तीव्र करते हैं, कभी भिन्न भिन्न मनोवेगों के विषय होकर प्रत्यक्ष विषय से उत्पन्न मनोवेग को परिवर्तित वा धीमा