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पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/१३४

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सार ही चलने पर विवश और कठपुतली सा जड़ होता जाता है-उसकी भावुकता का नाश होता जाता है। पाखंडी लोग मनोवेगों का सच्चा निर्वाह न देख, हताश हो मुँह बना बना- कर, कहने लगे हैं- "करुणा छोड़ो, प्रेम छोड़ो, क्रोध छोड़ो, आनंद छोड़ा। बस हाथ पैर हिलाओ, काम करो।"

यह ठीक है कि मनोवेग उत्पन्न होना और बात है और मनोवेग के अनुसार क्रिया करना और बात, पर अनुसारी परिणाम के निरंतर प्रभाव से मनोवेगों का अभ्यास भी घटने लगता है। यदि कोई मनुष्य प्रावश्यकतावश कोई निष्ठुर कार्य अपने ऊपर ले ले तो पहले दो चार बार उसे दया उत्पन्न होगी पर जब बार बार दया का कोई अनुसारी परिणाम वह उपस्थित न कर सकेगा तब धीरे धीरे उसका दया का अभ्यास कम होने लगेगा।

बहुत से ऐसे अवसर पा पड़ते हैं जिनमें करुणा प्रादि मनोवेगों के अनुसार काम नहीं किया जा सकता पर ऐसे अवसरों की संख्या का बहुत बढ़ना ठीक नहीं है। जीवन में मनोवेग के अनुसारी परिणामों का विरोध प्रायः तीन वस्तुओं से होता है-(१) आवश्यकता, (२) नियम और (३) न्याय । हमारा कोई नौकर बहुत बुड्ढा और कार्य करने में अशक्त हो गया है जिससे हमारे काम में हर्ज होता है। हमें उसकी अवस्था पर दया हो आती है पर आवश्यकता के अनुरोध से उसे अलग करना पड़ता है। किसी दुष्ट अफसर के कुवाक्य

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