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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२९१

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२६० उन्माद लोभ हर्ष भय शोक चिन्ता प्रमृतिक वशवों हो। अल्प निद्रा, कभो खाने को अनिच्छा, निर्जन एवं उण चित्तको दोष लगाता और जो बुद्धिको चञ्चलतासे रहनेको उत्कण्ठा, बीभत्सभाव, मुखपर शोथ, सादे दोषसमूहके प्रबल वेगसे तपकर हृदयस्थानको जाने चक्षु, स्थिर तथा आंख का मलमें ढाका और कफके हित- तथा मनको गति सकल घरमें अानपर मन, बुद्धि, जनकसे विपरीत द्रव्य खानसे अपकारका बोध होता है। संज्ञा, ज्ञान, स्मति, भक्ति, स्वभाव, चेष्टा तथा आहार वायुके प्रकोपसे जो उन्माद उठता है, उसमें देहको आदिका विश्वम पाता,उसोको उन्माद रोग दबाता है। रुक्षता, कर्कशता, श्वास, दुर्बलता, अङ्गको सन्धिका ___ उन्माद रोग लगने के पूर्व यह लक्षण देख पड़ता स्फरण, आस्फालन, नृत्य, गीत, रोदन, भ्रमण प्रभृति है-मस्तकका शून्य भाव, चक्षुद्दयका चाञ्चल्य, कर्णमें लक्षण रहते हैं। ध्वनि, निखास प्रवासका आधिक्य, मुखसे लारकी सविपातसे उन्माद आनेपर तोना दोषों का लक्षण टपक, भोजनमें अनिच्छा, अरुचि, हृदयमें वेदना, मिलता है। किसौके मतमें सत्रिपात जन्य उन्माद अकारण चिन्ता, अविपाक, परिश्रम का बोध, मोह, आरोग्य हो जाता है। किन्तु सम्पूर्ण लक्षण देख पड़ने मदका उद्वेग, लोमका हर्षण, ज्वर, मुख कुटि द्वारा पर रोग असाध्य ठहरता है। चक्षु तथा मुखको वक्रता, सोते समय भ्रम एव चित्र चौर, राजपुरुष वा शत्र द्वारा अत्यन्त भय पाने वा विचित्र प्रदर्शन, चक्षुका श्रावर्तन और प्रबल नदीको | अत्यन्त क्षोभ पाने अथवा अतिशय स्त्रोका ससर्ग धारामें कूद पड़ने की इच्छा। उठानेसे मनका उत्कट विकार बढ़ता है। चरक मतमें उन्माद रोग पांच प्रकारका होता है विषजन्य उन्माद में रोगो मूढ़ भावसे गाता हंसता १ वातज, २ पित्तज, ३ कफज, ४ सन्निपातज और या रोता है। चक्षु रक्त वर्ण पड़ जाते हैं। बल और .५ आगन्तुक ।* इन्द्रियोंका तेज घट जाता है। दोनभाव बढ़ने लगता पित्तोन्मादका लक्षण यह है-क्रोध, गर्व, अस- है। मुख कपिशवर्ण देखाई देता है। संज्ञाको हिष्णुता, जहां तहां ढील, काष्ठ वा अस्त्रादि फेंकना, होनता आती है। घुसा मारना, अपनी वा दूसरेको छाया देखना, ठण्डा महर्षि चरकने कहा है-वात, पित्त एवं कफज जल और वासी भात खाने को इच्छा, सर्वदा सन्तापक उन्मादमें जो कारण है, उन्होंसे अति भयङ्कर त्रिदोष- बोध, चक्षु तमतमाना, हरा या पीला पड़ना, सर्वदा का उन्माद उपजता है। उसमें तीनो दोषांका कारण चक्षु घूमते जैसे रहना। लक्षण देखाई देता है। सुश्रुतने त्रिदोषजनितको कफोन्मादमें ये देखते हैं-वमन,अग्निमान्द्य, अङ्गको सन्निपात-जन्य उन्माद लिखा है। प्रवसनता, अरुचि, कास, स्वीसंसर्गका अभिलाष, अल्प युरोपके प्रधान प्रधान चिकित्सक उन्माद रोगको ( Insanity) छः भागमें बांटते हैं-१म मतिविश्वम । • “एकैकश: समस्त व दोष धरत्यर्थमूर्छितैः । ( Delirium),श्य उन्मत्तता (Mania or Hyper- मानसेन च दुःखेन स पञ्चविध उचाते। phrenic), ३य उत्कण्ठारोग वा विषमता ( Melan- विषाद्भवति षष्ठय यथास्वन्नव भेषजम्।" (सुअत) cholia), ४थ विषाद ( Hypochondriasis), ५म विदोष भिन्न भिन्न वा पनन्य भावमें बिगड़ने अथवा मानसिक दुःख बुद्धिविपर्यय ( Dementia) और ठ जड़ता वा आगनेसे पांच प्रकारका उन्माद उपजता । सिवा इसके षष्ठ उन्माद निबुहिता ( Idiotey )। मतिमें विभ्रम पड़नेसे विषसे पाता है। इससे स्व स्व कारण समझ कर उनकी चिकित्सा चलाना चाहिये। अभिप्राय ठीक नहीं उतरता। कभी भली और + सुनुतने पित्तोन्मादका लक्षण कुछ विशेष लिखा है- वृषा, खेद, दाइ, पतिभोजन, निद्राको होनता, छाया, वायु एवं "हट्खे ददाहबहुली बहुभुम्विनिद्रछायाहिमानिखजलानविकारसेवी। । मलकै विहारमै पभिलाष, तौच्च-हिम-जख प्रतिसे भय, दिनकै समय नौलो हिमान्छ निचयेऽपि स वप्रियको पिचादिवा नभसि पश्यति तारकाथ।" पाकाथमें वाराका दर्शन। ।