सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४९ द्वितीय व्याख्यान प्रवृत्ति बहुत स्वस्थ और संयत रूप मे रही होगी। सभवत : सदेशरासक की मात्रा के आसपास ही। (ग) रासो मे अनुस्वार देकर छदोनिर्वाह की योजना बहुत अधिक मात्रा में है। 'रजंत भूषनं तनं । अलक्क छुट्य मन' । (पृ. २११२)-जैसे छन्दो में अकारण अनुस्वार दूंसे गये है। एक कारण तो अनुस्वार देने का यह हो सकता है कि भाषा मे संस्कृत की गमक आ जाए । परन्तु यह प्रवृत्ति सिर्फ इतने ही उद्देश्य से होती तो इतना विशाल रूप न धारण करती । वस्तुतः अपभ्र शकाल मे दो प्रकार से अनुस्वार जोडने के उदाहरण मिल जाते हैं-(१) मूल संस्कृत मे उस पद मे अनुस्वार रहा हो और छन्द की पादपूर्ति के लिए उसकी आवश्यकता अनुभव की गई हो । परवर्ती हिन्दी मे 'परब्रह्म' जैसे शब्दों मे यही प्रवृत्ति है। प्राकृत पिंगलसूत्र के उदाहरणों मे यह प्रवृत्ति पाई जाती है- ठवि सल्ल पहिल्लौ चमर हिहिल्ली सल्लजुलं पुणु बहू ठिा। (पृ० २१५) मे 'सल्लजुन' का अनुस्वार 'सत्ययुग' मे श्राए हुए संस्कृत-अनुस्वार का अवशेष है । (२) छद मे एकाध मात्रा की कमी रह गई हो और उसके लिये द्वित्ववाला विधान बहुत अच्छा नहीं दिख रहा हो जैसे 'गाय' (समान)-'णाय तुम्बरी सज्जिउ' (सं० रा०५३); परन्तु यह बात अपभ्रंश-कवियों में बहुत अधिक प्रिय नहीं थी। संदेशरासक मे 'श्रमियं झरणों (३३)-जैसे प्रयोगों को बहुत दूर तक नहीं घसीटा जा सकता। ये संस्कृत-ख- प्रत्यय-परक शब्दों (शुभंकर, प्रियंकर) के अनुकरण पर गढ़े गये जान पड़ते हैं। पु०प्र० के रासो-छप्पयों मे एक जगह 'खयंकर' (अगहु म गहि-दाहिमश्रो (देव) रिपुराय खयंकर) प्रयोग है जो इसी प्रवृत्ति का द्योतक है; परन्तु 'मितरि (उर भितरि खडहडिउ धीर कक्खंतरि बुक्कड) का अनुस्वार कुछ उसी प्रकार की भरती का मालूम होता है जिस प्रकार की भरती परबत्ती रासो मे है । प्राकृतिक पिंगलसूत्रों के उदाहरणों मे भरती के अनुस्वार नहीं मिलते और इसीलिए यह मान लिया जा सकता है कि मूल रासो के छन्दों में यह प्रवृत्ति बहुत अधिक मात्रा में नहीं होगी। कुछ थोडी रही होगी, इसमे सदेह नहीं। थोडी मात्रा मे यह प्रवृत्ति बाद में भी बनी रही। 'ढोला मारू रा दोहा' (राति जु बादल सघणघण बीज चमकर होइ) में थोडी बहुत यह प्रवृत्ति मिल जाती है। ३. गुरु स्वर को लघु बनाकर छंद का निवाह- अपभ्रंश की रचनाओं मे इसका बहुत (ह. भा० ७१७) प्रयोग मिलता है। साधारणतः तीन कौशलों से कवि इस प्रकार का प्रयास करता है- (क) दीर्घ को हस्व करके-ज्वाला का 'झाला' या 'जाला' होना चाहिए। अपनश की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार अन्तिम स्वर हस्व हो जाए तो 'जाल' या 'झाल' बनेगा; किन्तु अपनश-कवि आवश्यकता पड़ने पर इसे 'झल' या 'जल' कर देगा। हेमचन्द्र के उदाहृत दोहों मे 'ज्वाला' का जाल रूप मिलता है । (सासानल जाल झलक्कियउ) और 'ढोला मारू रा दोहा' में ज्वाला के अर्थ में 'झालि' शब्द का प्रयोग है । झाविन पइवी झालि सुंदर काई न सलसला (दो०६०३)